________________
330
हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना दुविधाभाव का नाश होने पर उसे ज्ञान होता है कि वह और उसका प्रियतम एक ही है। कवि ने अनेक सुन्दर दृष्टान्तों से इस एकत्व भाव को और अभिव्यक्त किया है। वह और उसके प्रिय, दोनों की एक ही जाति है। प्रिय उसके घट में विराजमान है और वह प्रिय में। दोनों का जल और लहरों के समान अभिन्न सम्बन्ध है। प्रिय कर्ता है और वह करतूति, प्रिय सुख का सागर है और वह सुख सींव है। यदि प्रिय शिव मंदिर है तो वह शिवनींव, प्रिय बह्मा है तो वह सरस्वती, प्रिय माधव है तो वह कमला, प्रिय शंकर है तो वह भवानी, प्रिय जिनेन्द्र है तो वह उनकी वाणी है। इस प्रकार जहां प्रिय है - वहां वह भी प्रिय के साथ में है। दोनों उसी प्रकार से हैं - ‘ज्यौं शशि हरि में ज्योति अभंग।' जो प्रिय जाति सम सोइ। जातहिं जात मिलै सब कोइ ।।८।। प्रिय मोरे घट, मैं पियमहिं। जलतरंग ज्यौं द्विविधा नाहिं ।।१९।। पिय मो करता मैं करतूति। पिय ज्ञानी में ज्ञानविभूति ।।२०।। पिय सुखसागर मैं सुखसींव। पिय शिवमन्दिर मैं शिवनींव ।।२१।। पिय ब्रह्म मैं सरस्वति नाम। पिय माधव मो कमला नाम ।।२२।। पिय शंकर मैं देवि भवानि। पिय जिनवर मैं केवलबानि ।।२३।। जहं पिय तहमैं पिय केसंग।ज्यौं शशि हरि मेंजोति अभंग ।।२९।।१२०
कविवर बनारसीदास ने सुमति और चेतन के बीच अद्वैत भाव की स्थापना करते हुए रहस्यभावना की साधना की है। चेतन को देखते ही सुमति कह उठती है, चेतन, तुमको निहारते ही मेरे मन से परायेपन की गागर फूट गयी। दुविधा का अचल फट गया और शर्म का भाव दूर हो गया। हे प्रिय, तुम्हारा स्मरण आते ही मैं राजपथ को छोड़कर भयावह जंगल में तुम्हें खोजने निकल पड़ी। वहां हमने तुम्हें देखा कि तुम शरीर की नगरी के अंतः भाग में अनन्त शक्ति सम्पन्न होते हुए भी