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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
एक अन्यत्र स्थान पर कवि का उपलम्भ देखिये- वह उद्धार किये गये व्यक्तियों का नाम गिनाता है और फिर अपने इष्ट को उलाहना देता है कि मेरे लिए आप इतना विलम्ब क्यों कर रहे हैं।
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मेरी अब बेर कहा ढील करी जी ।
सूली सों सिंहासन कीना, सेठ सुदर्शन विपति हरी जी ।। सीता सती अगनि में बैठी पावक नीर करी सगरी जी । वारिषेण पै खडक चलायो, फूलमाल कीनी सुथरी जी ।। धन्या वाणी परलो निकाल्यौ ता घर रिद्ध अनेक भी जी । सिरीपाल सागर तैं तारयो, राजभोग के मुकति वरी जी ।। सांप किय फूलन की माला, सोमा पर तुम दया धरी जी । 'द्यानत' में कुछ जांचत नाहीं, कर वैराग्य दशा हमरी जी ।" दौलतराम भी इस प्रकार उपलम्भ देते हैं और अवगुणों की क्षमा याचना कर आराध्य से दुःख दूर करने की प्रार्थना करते हैं -
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नाथ मोहि तारत क्यौं ना, क्या तकसीर हमारी ।। अंजन चोर महा अघ करता सपत विसन का धारी । वो ही मर सुरलोक गयो है, बाकी कछु न विचारी ॥ १ ॥ शूकर सिंह नकुल वानर से, कौन-कौन व्रत धारी । तिनकी करनी कछु न बिचारी, वे भी भये सुर भारी ।।२।। अष्ट कर्म बैरी पूरुब के, इन मो करी खुवारी । दर्शन ज्ञान रतन हर लीने, दीने महादुख भारी ||३|| अवगुण माफ करे प्रभु सबके, सबकी सुधि न विसारी । दौलतराम खड़ा कर जोरे, तुम दाता मैं भिखारी || ४ || ५
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इस प्रकार प्रपत्तभावना के सहारे साधक अपने आराध्य परमात्मा के सान्निध्य में पहुंचकर तत्तत् गुणों को स्वात्मा में उतारने