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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ
305 कविवर द्यानतराय ने पार्श्वनाथ स्तोत्र में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की महिमा का अनेक प्रकार से गुणगान किया है - दुखी दुःखहर्ता सुखी सुक्खकर्ता । सदा सेवकों को महानन्द भर्ता ।। हरे यक्ष राक्षस भूतं पिशाचं । विषंडांकिनी विघ्न के भय अवाचं ।।३।। दरिद्रीन को द्रव्य के दान दीने । अपुत्रीन को तु भले पुत्र कीने ।। महासंकटों से निकारै विधाता । सबे संपदा सर्व को देहि दाता ॥४॥
___पं.रूपचन्द्र प्रभु की अनन्त गुण गरिमा से प्रभावित होकर कह उठते हैं - 'प्रभु तेरी महिमा को पावै। कविवर बुधजन भी प्रभु तेरी महिमा वरणी न जाई' कहकर इसी भाव को अभिव्यक्त करते हैं। इसीलिए भक्त कवि भावविभोर होकर कह उठते हैं - गणधर इन्द्र न करि सबै तुम विनती भगवान। विनती आप निहारिक कीजै आप समान।
साधक गुण आराध्य कीर्तन कर उसके चिन्तवन में अपने को लीन कर लेना है। उसके नाम स्मरण से ही उसकी सारी इच्छायें पूर्ण हो जाती है। उसके लिए भगवान काम घट-देवमणि और देवतरू के समान लगते हैं। भट्टारक कुमुदचन्द्र ने इसी तथ्य को 'नाम लेत सहू पातक चूरे' कहकर अभिव्यक्त किया है। मुनिचरित्रसेन नेमिनाथ के समाधिमरण का स्मरण करने के लिए कहते हैं जिससे अन्तःकरण का समूचा विष नष्ट हो जाता है - 'नमि समाधि सुमरि जिय बिसु नासइ।३ प्रभु का स्मरण करके ब्रह्म रायमल्ल का मन अत्यंत उत्साहित होता है - 'तौह सुमिरण मन होइ उछाह तो हुआ छ अरु होय जी सी।' इससे अठारह दोष दूर हो जाते हैं और छयालीस गुण उत्पन्न हो जाते हैं।" भैया भगवतीदास के लिए प्रभु का नामस्मरण कल्पवृक्ष, कामधेनु,