________________
298
हिन्दी जैन साहित्य में
'रहस्यभावना
दिखाई देता है । इन सब तत्त्वों के मिलन से जैन-साधकों का रहस्य परम रहस्य बन जाता है ।
प्रस्तुत परिवर्त में साधक का आत्मा बहिरात्मा से मुक्त होकर अन्तरात्मा की और मुड़ता है । अन्तरात्मा बनने के बाद तथा परमात्मपद प्राप्ति के पूर्व इन दोनों अवस्थाओं के बीच में उत्पन्न होने वाले स्वाभाविक भावों की अभिव्यक्ति को ही रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों का नाम दिया गया है। इन प्रवृत्तियों में मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने प्रपत्ति ( भक्ति), सहज योग साधना और समरसता तथा रहस्य भावना का विशेष रूप से उपयोग किया है । हम आगे इन्हीं तत्त्वों का विवेचन करेंगे।
१. प्रपत्त भावना :
रहस्य भावना में साधक परमात्मपद पाने के लिए अनेक प्रकार के मार्ग अपनाता है। जब योग साधना का मार्ग साधक को अधिक दुर्गम प्रतीत होता है तो वह प्रपत्ति का सहारा लेता है। रहस्य साधकों के लिए यह मार्ग अधिक सुगम है। इसलिए सर्वप्रथम वह इसी मार्ग का अवलम्बन लेकर क्रमशः रहस्य भावना की चरम सीमा पर पहुंचता है । रहस्य भावना किंवा रहस्यवाद की भूमि चार प्रमुख तत्त्वों से निर्मित होती है - आस्तिकता, प्रेम और भावना, गुरु की प्रधानता और सहज मार्ग। जैन साधकों की आस्तिकता पर सन्देह की आवश्यकता नहीं । उन्होंने तीर्थंकरों के सगुण और निर्गुण, दोनों रूपों के प्रति अपनी अनन्य भक्ति-भावना प्रदर्शित की है। उनकी भगवद् प्रेम भावना उन्हें प्रपन्न भक्त बनाकर प्रपत्ति के मार्ग को प्रशस्त करती है ।