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________________ 255 रहस्यभावना के साधक तत्त्व है और अरहंत, श्रावक, साधु, सम्यक्त्व आदि अवस्थायें साधक हैं, इनमें प्रत्यक्ष-परोक्ष का भेद है। ये सब अवस्थायें एकजीव की हैं । ऐसा जानने वाला ही सम्यग्दृष्टि होता है। सहजकीर्ति गुरु के दर्शन को परमानन्ददायी मानते हैं - 'दरशन नधिक आणंद जंगम सुर तरुकंद।' उनके गुण अवर्णनीय हैं - 'वरणवी हूं नवि सकू, । जगतराम ध्यानस्थ होकर अलख निरंजन को जगाने वाले सद्गुरु पर बलिहारी हो जाता है। और फिर सद्गुरु के प्रति 'ता जोगी चित लावो मोरे वालो' कहकर अपना अनुराग प्रगट किया है।" वह शील रूप लंगोटी में संयम रूप डोरी से गाँठ लगाता है क्षमा और करुणा का नाद बजाता है तथा ज्ञान रूप गुफा में दीपक संजोकर चेतन को जगाता है। कहता है, रे चेतन, तुम ज्ञानी हो और समझाने वाला सद्गुरु है तब भी तुम्हारे समझ में नहीं आता, यह आश्चर्य का विषय है। ___ सद्गुरु तुमहिं पढ़ावै चित दै अरु तुमहू हौ ज्ञानी, तबहूं तुमहिंन क्यों हू आवै, चेतन तत्त्व कहानी। पांडे हेमराज का गुरु दीपक के समान प्रकाश करने वाला है और वह तमनाशक और वैरागी है। उसे आश्चर्य है कि ऐसे गुरु के वचनों को भी जीव न तो सुनता है और न विषयवासना तथा पापादिक कर्मो से दूर होता है। इसलिए वह कह उठता है-सीष सगुरु की मानि लैरैलाल। रूपचन्द की दृष्टि में गुरु-कृपा के बिना भवसागर से पार नहीं हुआ जा सकता। ब्रह्मदीप उसकी ज्योति में अपनी ज्योति मिलाने के लिए आतुर दिखाई देते हैं - ‘कहै ब्रह्मदीप सजन समुझाई करि जोति में जोति मिलावै।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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