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________________ षष्ठ परिवर्त रहस्य भावना के साधक तत्त्व रहस्य भावना के पूर्वोक्त बाधक तत्त्वों को दूर करने के बाद साधक का मन निश्छल और शांत हो जाता है। वह वीतरागी सद्गुरु की खोज में रहता है। सद्गुरु प्राप्ति के बाद साधक उससे संसार-सागर से पार होने के लिए मार्ग-दर्शन की आकांक्षा व्यक्त करता है। सद्गुरु की अमृतवाणी को सुनकर उसे संसार से वैराग्य होने लगता है । वह संसार की प्रवृत्ति को अच्छी तरह समझने लगता है, शरीर की अपवित्रता, विनश्वर शीलता और नरभव-दुर्लभता पर विचार करता है, आत्म सम्बोधन, पश्चात्ताप आदि के माध्यम से आत्मचिन्तन करता है, वासना और कर्म फल का अनुभव करने लगता है, चेतन और कर्म के सम्बन्ध पर गम्भीरतापूर्वक मनन करता है, आश्रव और बन्ध के कारणों को दूर कर संवर और निर्जरा तत्त्व की प्राप्ति करने का प्रयत्न करता है। बाह्य क्रियाओं से मुक्त होकर अन्तः करण को विशुद्ध करता है, स्व-पर विवेक रूप भेदविज्ञान को प्राप्त करता है और सम्यग्दर्शन और ज्ञानचारित्र रूप रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए साधना करता है। इस स्थिति में आते-आते साधक का चित्त मिथ्यात्व की ओर से पूर्णतः दूर हट जाता है तथा भेदविज्ञान में स्थिरता लाने के लिए साधक तप और वैराग्य के माध्यम से परमार्थ रूप मोक्ष की प्राप्ति के लिए क्रमशः शुभोपयोगी और शुद्धोपयोगी बन जाता है। अभी तक साधक के लिए
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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