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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य में 'बारहमासा' बहुत लिखे गये हैं। उनमें से कुछ तो निश्चित ही उच्चकोटि के हैं। कवि विनोदीलाल का नेमि-राजुल बारहमासा यहाँ उल्लेखनीय है जिसमें भाव और भाषा का सुन्दर समन्वय दिखाई देता है । यहाँ राजुल ने अपने प्रिय नेमि को प्राप्य पौष माह की विविध कठिनाइयों का स्मरण दिलाया हैपिय पौष में जाडौ धनो, बिन सौंढ़ के शीत कैसे भर हो। कहा ओढेगे शीत लगे जब ही, किधी पातन की धुवनीधर हो।। तुम्हरो प्रभुजी तन कोमल है, कैसे काम की फौजन सौं लर हौ। जब आवेगी शीत तरंग सबै, तब देखत ही तिनको डर हो।। १२. संख्यात्मक काव्य
मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने संख्यात्मक साहित्य का विपुल परिमाण में सृजन किया है । कहीं यह साहित्य स्तुतिपरक है तो कहीं उपदेश परक, कहीं अध्यात्मक परक है तो कहीं रहस्य भावना परक। इस विधा में समासशैली का उपयोग दृष्टव्य है।
लावण्यसमय का स्थूलभद्र एकवीसो (सं. १५५३), हीरकलश सिंहासनवतीसी (सं. १६३१), समयसुन्दर का दसशील तपभावना संवादशतक (सं. १६६२), दासो का मदनशतक (सं. १६४५), उदयराज की गुणवावनी (सं. १६७६), बनारसीदास की समकितवत्तीसी (सं. १६८१), पाडे रूपचन्द का परमार्थ दोहाशतक, आनन्दघन का आनन्दघन बहत्तरी (सं. १७०५), पाण्डे हेलराज का सितपट चौरासी बोल (सं. १७०९), जिनरंग सूरि की प्रबोधवावनी