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________________ 136 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना परणिसु संयमसिरि वर नारी भाइ माए मज्झु मणह पियारी; जासु पसाइण वंछिउ सिज्झए बलविन संसारमिं पडिज्जए ।।१।। ब्रह्म जिनदास (१५वीं शती) ने अपेन रूपक काव्य ‘परमहंस रास' में शुद्ध स्वभावी आत्मा का चित्रण किया है। यह परमहंस आत्मा माया रूप रमणी के आकर्षण से मोह ग्रसित हो जाता है। चेतना महिषी के द्वारा समझाये जाने पर भी वह मायाजाल से बाहर नहीं निकल पाता। उसका मात्र बहिरात्मा जीव काया नगरी में बच रहता है। माया से मन-पुत्र पैदा होता है। मन की निवृत्ति व प्रवृत्ति रूप दो पत्नियों से क्रमशः विवेक और मोह नामक पुत्रों की उत्पत्ति होती है । ये सभी परमहंस (बहिरात्मा) को कारागार में बन्द कर देते हैं और निवृत्ति तथा विवेक को घर से बाहर कर देते हैं। इधर मोह के शासनकाल में पाप वासनाओं का व्यापार प्रारंभ हो जाता है। मोह की दासी दुर्गति से काम, राग, और द्वेष ये तीन पुत्र तथा हिंसा, घृणा और निद्रा ये तीन पुत्रियाँ होती हैं। विवेक सन्मति से विवाह करता है सम्यक्त्व के खड्ग से मिथ्यात्व को समाप्त करता है। परमहंस आत्मशक्ति को जाग्रत कर स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त करता हैं। इसी तरह ब्रह्मवूचराज, बनारसीदास आदि के काव्य भी इसी प्रकार भावाभिव्यक्ति से ओतप्रोत है। फागु साहित्य में नेमिनाथ फागु (भट्टारक रत्नकीर्ति) यहां उल्लेखनीय है। कवि ने राजुल की सुन्दरता का वर्णन किया है - चन्द्रवदनी मृगलोचनी, मोचनी खंजन मीन । वासग नीत्पो वेणिइ, मेणिण मधुकर दीन।।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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