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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
प्राचीन काल में जैन संस्कृति समग्र वृहत्तर भारत में फैली हुई थी । जैन साधक पदविहारी होने के कारण लोक संस्कृति और भाषा के आवाहक रहे हैं। प्रायः सभी प्राच्य भारतीय भाषाओं का साहित्य जैनाचार्यों की लेखनी से प्रभूत संवर्धित हुआ है। तमिल भाषा के प्राचीन पांच महाकाव्यों में शिलप्पदिकारम, वलयापनि और जीवक चिन्तामणि जैन काव्य हैं। उसके पांच लघुकाव्य भी जैन काव्य हैं - नीलकेशि, चूडामणि, यशोधर कावियम, नाग कुमार कावियम तथा उदयपान कथै। इसी तरह व्याकरण, छन्द शास्त्र, कोश आदि क्षेत्रों में भी जैन कवियों ने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है ।
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कर्नाटक प्रदेश तो जैनधर्म का गढ़ रहा है। आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, अकलंक, सोमदेव आदि शताधिक आचार्य यहीं हुए हैं। कन्नड जैन कवियों में पम्प, पोन्न, रन्न, जिनसेन, चामुण्डराय, श्रीधर, शान्तिनाथ, नागचन्द्र, नेमिचन्द्र, वोप्पण, आचण्ण, महबल आदि विशेष उल्लेखनीय हैं जिन्होंने कन्नड साहित्य की सभी विधाओं को आदिकाल से ही समृद्ध किया है। इसी तरह मराठी साहित्य के प्राचीन जैन कवियों में जिनदास, गुणदास, मेघराज, कामराज, गुणनन्दि, जिनसेन आदि के नाम अविस्मरणीय है ।
गुजराती का भी विकास अपभ्रंश से हुआ है। १२वीं शती से अपभ्रंश और गुजराती में पार्थक्य दिखाई देने लगता है। गुजरात प्रारम्भ से ही जैन संस्कृति का केन्द्र रहा है। जैन कवियों ने रासो, फागु, बारहमासा, कक्को, विवाहलु, चच्चरी, आख्यान आदि विधाओं को समृद्ध करना प्रारम्भ किया । हिन्दी साहित्य की दृष्टि से शालिभद्रसूरि (११८५ ई.) का भरतेश्वर बाहुबलिरास प्रथम प्राप्य गुजराती कृति है। उसके बाद धम्मु का जम्बुरास, विनयप्रभ का गौतमरास, राजशेखर का नेमिनाथ फागु आदि प्राचीन गुजराती साहित्य की श्रेष्ठ कृतियां हैं जिन्हें हिन्दी जैन साहित्य से जोडा जाता है ।