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पंचम श्री मुनिपद पूजा
काव्यम् इन्द्रवज्रावृत्तम् साण संसाहिअ-संजमाणं, नमो नमो सुद्ध-दया-दमाणं । तिगुत्ति गुत्ताण समाहियाणं, मुणींद माणंदपयट्ठियाणं ।१।
भुजंगप्रयात-वृत्तम् करे सेवना सूरि वायग गणिनी, करु वर्णना तेहनी शी मुणिनी । समेता सदा पंच समिति त्रिगुप्ता, त्रिगुप्ते नहिं काम-भोगेषु लिप्ता ॥१॥ वली बाह्य अल्दंतर ग्रंथि टाली, होये मुक्ति ने योग्य चारित्र पाली । शुभाष्टांग योगे रमे चित्त वाली, नमुं साधुने तेह निज पाप टाली ॥२॥
ढाल, उलालाकीदेशी सकल विषय विष वारिने, निःकामि निःसंगी जो । भव दव ताप शमाववा, आतम साधन रंगी जी ॥१॥
उलालो जे रम्या शुद्ध स्वरुप रमणे, देह निर्मम निर्मदा । काउस्सग्ग मुद्रा धीर आसन, ध्यान अभ्यासी सदा ॥
तप तेज दीपे कर्म झीपे, नैव छिप पर भणी । मुनिराज करुणा सिंधु त्रिभुवन, बंधु प्रणमुं हित भणी ॥२॥
पूजा ढाल, श्रीपालकेरासकीदेशी
जेम तरु फूले भमरो बेसे, पीडा तस न उपजावे । लेइ रस आतम संतोषे, तेम मुनि गोचरी जावे रे ।भविका ! सिद्धचक्र पद वंदो ॥१॥
पंच इन्द्रियने जे नित्य झीपे, षट्कायक प्रतिपाल । संयम सत्तर प्रकारे आराधे, वंदु तेह दयाल रे । भ.। सि.२। ___ अढार सहस्स शीलांगना धोरी, अचल आचार चारित्र । मुनि महंत जयणायुत वदी, कीजे जन्म पवित्र रे । भं.। सि.३।
नवविध ब्रह्मगुप्ति जे पाले, बारसविह तप शूरा । एहवा मुनि नमिये जो प्रगटे, पूरव पुण्य अंकुरा रे । भ.सि.४।
सोना तणी परे परीक्षा दीसे, दिन दिन चढते वाने । संजम रुप करता मुनि नमिये, देश काल अनुमाने रे ॥
भविका ! सिद्धचक्र पद वंदो ॥५॥
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