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प्रायश्चित्त और विनय विचार, वैयावच्च स्वाध्याय श्रीकार ॥ ध्यानोत्सर्ग धरो मन धीर ॥ तपहै || ३ ||
अभ्यंतर तप ये षट जानो, सर्व दोष हरनेको निदानो ॥ तपभवक्षिति-विदारण- सीरे ॥ तप है ॥४॥ सर्व गुण गुण ये सार, इससे करमको करके ठार | शिवसुख लब्धि लियो बन वीर ॥ तप है ॥५॥
काव्यम् : सर्वोत्तमध्येय पदप्रधानं, सुरासुरेन्द्रैः परिपूजितं यत् ॥
सेवस्व तध्ध्यानवतां हि गोचरं, गुणस्वरुपं शुभ- सिद्धचक्रम् ||१|| उपजाति वृत्तम् ॥ ॐ ह्रीँ श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्मजरा मृत्युः
मंत्र:
निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय जलादिकं यजामहे स्वाहा
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॥ कलश ॥
(राग - रेखता)
सिरि सिद्धचक्र गुण गाया, मानुं अमृतघट पाया ।। जनम-मरणो दूरे ठाया, मिलेगी शीघ्र शिवछाया ॥ सिरि ॥१॥ सेवासे सेव्येकी जानो, लहे सेवकभी तस ठानो ।
आगममें ये मिले व्यानो, धरो सिद्धचक्र वर ध्यानो ॥ सिरि ॥२॥ विजय आनंदसूरिराया, तपागच्छ को है दीपाया ॥
अपूरव ज्ञानकी माया, अति कीरति जगत छाया || सिरि ॥३॥ इन्हों के पट्टके धारी, विजय कमलसूरि भारि ।
बजाया धर्मका डंका, घरण ब्रह्मचर्य में बंका ॥ सिरि ॥४॥ पधारे सूर्यपुर मांहे, सेवा करे भक्त उच्छाहे ।
किये दो पट्टधर साथे, गुणिवर ये मुनि नाथे ॥ सिरि ॥५॥ सूरि श्री दान मुणींदा, सूरि लब्धि हरे फंदा ॥
धरम की देशना दे कर, करे पर आत्म आनंदा || सिरि ॥ ६ ॥ केसर मंगल मेरु जानो, विजयपद उत्तरे ठानो ।
नरेंद्र, चंद्र, केवलथी, विजयोत्तर लक्षण मानो ॥ सिरि ॥७॥ भुवन जयंत परिवारा, सूरतमें सूरीश्वर धारा ॥
रहे चौमास उमंगे, धरम करणी भई रंगे ॥ सिरि ॥८॥ से जहां संघ धर्मिष्ठा, रखे नित्य भक्तिमें निष्ठा ।
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