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________________ चतुर्थ उपाध्याय पद पूजा ॥ दोहा ॥ वाचक पद नित्य नित्य नमो, अंग उपांग के जाण ॥ चरण करण चित्त धारते, करे मूर्खने जाण ॥१॥ ॥ ढाळ पहेली ॥ (चाल-रसियाजी गिरधारी की.) | उवज्झाया उवज्झाया उवज्झाया, युवराज हो सूरिपद के योगी सेवा मुज दीजिए जी ॥ अंचली ॥ आवश्यक पच्चीस करते, भावना पच्चीस धरते ॥ पणवीस किरिया जिन्होंने टारी, युवराज ॥१॥ कुमति को सुमति करते, सूत्रार्थ मर्म धरते ॥ सर्व आगम के अधिकारी, युवराज ॥२॥ हरि भूप वासुदेवा, शशी रवि सुरगिरि जेवा ।। हये वृष सिंह वली भंडारी, युवराज ॥३॥ जंबूद्वीप कुंजरे सीता, चक्री स्वयंभू लित्ता । उत्तरज्झयणे ए उपमा धारी, युवराज ॥४॥ चेतन निर्मलताकारी, वाचक उपकार भारी ।। आत्मकज लब्धि के भंडारी, युवराज ॥५॥ ॥ दोहा ॥ सूत्र ज्ञान विस्तारते, हरते कुमति कुनेह ॥ वाचना आपे शिष्यने, वाचक गुरु गुणगेह ॥१॥ ॥ढाळ बीजी ॥ (राग-सोरठ-व्हाला वीर जिनेश्वर जन्मजरा निवारजो रे.) अरे सुखइच्छुक! वाचक सेवाथी सुख थाय छे रे । सेवाहीन जीवतर तारुं जीवडा! एळे जाय छे रे ॥अरे ॥१॥ लाख चोरासी योनि भटकी, गर्मोमां बहु ऊंघो लटकी । काल अनंते पुण्ये नरभव पाय छे रे ।। अरे ॥ २॥ ज्यां त्यां जोशो पत्थर मलशे, हीरो नहीं तुम नजरे चडशे ॥ अन्य देहमां नरदेह तेम जणाय छे रे ॥ अरे ॥३॥ दुर्लभ देहे सार्थक करशे, ते वेगे शिवरमणी वरशे । -482
SR No.022757
Book TitleNavpad Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmityashsuri
PublisherSohanlal Anandkumar Taleda
Publication Year2005
Total Pages654
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size38 MB
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