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॥काव्यम्॥
॥तोटक वृत्तम्॥ परमेष्टिनमानमतां सुखद, शिवसद्मगतं गमिनं च मुदा ॥ भ्रमहारकमत्रं महागुणदं, परितो यजते खलु भक्तजनः ॥१॥
॥मंत्र॥ ॐ ह्रीँ श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्मजरामृत्यु-निवारणाय श्रीमते सिद्धपरमेष्ठिने जलादिकं यजामहे स्वाहा तृतीय आचार्य परमेष्ठि पूजा
॥दोहा॥ पांच इंद्रियो वश करे, नव ब्रह्म गुप्ति धार । चार कषाय निवारता, पाले पांच आचार ॥१॥
पांच महाव्रत पालता, पांच समिति धार || त्रण गुप्ति ए शोभता, आचारज सुखकार ॥२॥
॥ढाळ-पहेली॥ (सार आ संसारमा न जोयो, में बहु रीते तपासतां-ए चाल) आचार्यपद हितकारी, रे भवि जाणो जगतमां ॥आचार्यपद।। अंचली।
जिन केवली सूर चंद्र अभावे, ए छे दीपक जगभारी परे भवि॥ चउदसो बावन सर्वे जिणंदना, नमो गणधर सुखकारी ॥रे भवि ॥२॥ बारसो छन्नु गुणथी विभूषित, छत्तीस छत्तीसी अनुसारी परे भवि ॥३॥
दोय सहस चउ वीरशासनमां, युगप्रधान मनोहारी रे भवि ॥४॥ आत्मकमल निर्लेप करीने, वरशे शिव लब्धि अति प्यारी गरे भवि ॥५॥
॥ दोहा ॥ शमी दमी प्रवचन धरा, आचारज सुखकार ॥ नमो ए आनंदकंद ने, शासन ना शृंगार ॥१॥
स्वपर मतने जाणता, स्थापे शासन सार । सम भावे संयम धरे ममता नहीं लगार ॥२॥
(रंक परे दया लावो रे, दयालु देवा-ए चाल) आचारज पद ध्यावो रे, भावि भव्यो! आचारज पद ध्यावो || ए अंचली। शासनना स्थंभ धोरी, काया कंचन सम गोरी ॥
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