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________________ ३२ ] . सुदर्शन-चरित। रखकर वह राजमहलके दरवाजेपर आई। अपना कार्य सिद्ध होनेके लिए दरवाजेके पहरेदारको अपनी मुटीमें करलेना बहुत जरूरी समझा और इसीलिए उसने यह कपट-नाटक रचा। वह दरवाजेपर जैसी आई वैसी ही किसीसे कुछ न कह-सुनकर भीतर जाने लगी। उसे भीतर घुसते देखकर पहरेपरके सिपाहीने रोककर कहा-माजी, आप भीतर न जाय । मैं आपको मना करता हूँ। इसपर बनावटी क्रोधके साथ उसने कहा-मूर्ख कहींके, तू नहीं जानता कि मैं रानीके महलमें जा रही हूँ। मुझे तू क्यों नहीं जाने देता ? सिपाही भी फिर क्यों चुप होनेवाला था। उसने कहा-राँड, चल लम्बी हो ! दिखता नहीं कि रात कितनी जा चुकी है ? इस समय मैं तुझे किसी तरह नहीं जाने दे सकता। सिपाहीके मना करनेपर भी उसने उसकी कुछ न सुनी और आप जबरदस्तीभीतर घुसने लगी। सिपाहीको गुस्सा आया सो उसने उसे एक धक्का मारा । वह जमीनपर गिर पड़ी। साथ ही उसके कन्धेपर रखी हुई वह पुरुष-प्रतिमा भी गिरकर फूट गई। उसने तब एकदम अपना भाव बदलकर गुस्सेके साथ उस पहरेदारसे कहा-मूर्स, ठहर, घबरा मत मैं तुझे इसका मजा चखाती हूँ। तू नहीं जानता कि आज महारानीने उपवास किया था। सो वे इस मिट्टीके बने कामदेवकी पूजा कर आज जागरण करतीं और आनन्द मनातीं। सो तूने इसे फोड़ डाला। देख अब सबेरे ही महारानी इस अपराधके बदले में तेरा क्या हाल करती हैं ? तुझे सकुटुम्ब वे सूलीपर चढ़ा देंगी। उसकी इस विभीषिकाने बेचारे उस पहरेदारके रोम-रोमको कॅपा
SR No.022755
Book TitleSudarshan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kashliwal
PublisherHindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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