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सुदर्शन-चरित। ज्जतासे आपसे बोलती हूँ, उसे क्षमा करना। मैं इस समय सर्वथा पर-वश हो रही हूँ और असंभव नहीं कि जिस दशामें मैं अब हूँ उसीमें कुछ दिन और रहूँ तो मेरे प्राण चले जायँ । इसलिए मुझे यदि तुम जिन्दा रखना चाहती हो, तो जिस किसी उपायसे बने एकवार मेरे प्यारे सुदर्शनको लाकर मुझसे मिलाओ । वही मुझे जिलानेके लिए संजीवनी है। उसकी यह असाध्य वासना सुनकर उस धायने उसे समझाया-देवी, तूने बड़ी ही बुरी और घृणित इच्छा की। जरा आँखे खोलकर अपनेको देख तो सही कि तू कौन है ? तेरा कुल कौन है ? तू किसकी गृहिणी है? और ये निन्दनीय विचार, जो तेरे पवित्र कुलको कलंकित करनेवाले हैं, तेरे-तुझसी रान-रानीके योग्य हैं क्या ? तू नहीं जानती कि ऐसे बुरे कामोंसे महान् पापका बंध होता है, अपना सर्वनाश होता है
और सारे संसारमें अपकीर्ति-अपवाद फैल जाता है। क्या तुझे इन बातोंका भय नहीं ? यदि ऐसा है तो बड़े ही दुःखकी बात है। कुलीन घरानेकी स्त्रियोंके लिए पर-पुरुषका समागम तो दूर रहे, किन्तु उसका चिन्तन करना-उसे हृदयमें जगह देना भी महा पाप है, अनुचित है और सर्वस्व नाशका कारण है। और तुझे यह भी मालूम नहीं कि सुदर्शन बड़ा शीलवान् है। उसके एक पत्नीव्रत है। वह दूसरी स्त्रियोंसे तो बात भी नहीं करता। इसके सिवा यह भी सुना गया है कि वह पुरुषत्व-हीन है। भला, तब तू उसके साथ क्या सुख भोगेगी? और ऐसा संभव भी हो, तो इस पापसे तुझे दुर्गतिके दुःख भोगना पड़ेंगे। यह काम महान् निंद्य और सर्वस्व नाश करनेवाला है।