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प्रभंजन- चरित ।
किसी प्रदेशमें बैठे हुए एक मुनिको देखा। इनका नाम प्रभंजन था । प्रभंजनका शरीर तपसे बहुत कृश हो रहा था, तो भी कल्लोल रहित समुद्रकी नाई हलन चलन क्रियासे रहित था; दीप्त, तप्त और महाघोर तपके तेजसे तेजवाला था। इनका मन, बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहसे बिल्कुल अलिप्त था । ऐसे प्रभंजनको देखकर पूर्णभद्र महाराज बहुत सन्तुष्ट हुए । सच है कि भव्यजीवोंको मुनीश्वरोंके दर्शनमात्रसे ही हर्ष होता है फिर यदि उनके साथ कोई बन्धुभाव हो तब तो कहना ही क्या है ? राजा उन मुनिको नमस्कार कर आगे गये | वहाँ एक अशोक वृक्षके नीचे बैठे हुये श्रीवर्द्धनमुनिको देखा और उन्हें नमस्कार किया ।
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उनसे सात तत्त्वोंका निर्दोष श्रद्धान कर दो प्रकारके धर्मका श्रवण किया । बादमें प्रभंजन मुनिके विषयमें पूछा कि भगवन् ! इनका नाम क्या है ? इनके तपका कारण क्या है ? और इनके ऊपर मेरे हृदयमें जो भारी स्नेह हो रहा है इसका कारण क्या है ?
राजाके इन प्रश्नोंको सुन, मुनिराजने उत्तर दिया कि इन्होंने काम, क्रोध आदि छ : शत्रुओं का प्रभंजन ( विनाश ) कर डाला है, इस लिये इनको प्रभंजन कहते हैं । अब आगे क्रमसे मैं इनके तपका कारण बताता हूँ तुम सावधान हो सुनो ।
कथाका प्रारम्भ-जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र में शुंभ देश है । इस देशमें भंभापुर नगर है । इस नगरकी खाईपर हमेशा हंस कल्लोले किया करते हैं, और खाईके मध्यभागकी शोभा देखने को उत्सुक रहते हैं। गंभापुरका कोट अपने ऊँचे २ दरवाजोंसे सुशोभित है । इस नगर में बड़े २ विशाल जैन मन्दिरोंकी कई एक कतारे - पंक्तियाँ बनी हुई हैं जो