SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाँचवा सर्ग। [ ४१ इसके बाद शीलसे विभूषित, गुणरूपी रत्नोंके कोश, समतारूपी चन्द्रके लिए क्षीरसागरके तुल्य, षट्कायिक जीवोंके प्रतिपालक, पंच पापके सर्वथा त्यागी, जातरूप ( नग्नरूप) के धारी, पंच समिति और तीन गुप्तिके पालनहारे, कोष्टबुद्धि आदि बुद्धिओंके स्वामी, श्रुतांबुधिके पारको प्राप्त, सर्व ऋद्धियोंसे युक्त, कुकथा आदिसे विरक्त, कोई पक्षोपवासी, कोई मासोपवासी, कोई चान्द्रायण व्रतधारी, कोई आचाम्लचारी, विमान मेरु पंक्ति आदि विधियोंके आलय, कारित अनुमित आदि पिंड़ आदिके त्यागी, इनको आदि लेकर और २ गुणोंसे भी युक्त वे सब मुनीश्वर नाना देशोंमें विहार करते २ अतिशय शोभाशाली पुरताल पर्वतके पास पहुँचे । इस पर्वतके कोटि पाषाणतुल्य, सुवर्णकी कसौटीके समान गौरवशाली, सफ़ेद सरसोंके समान निर्मल, मणियोंसे खचित, कूटपर श्रीवर्द्धन योगीश्वरने भले प्रकार अपने शरीरका त्याग कर दिया और आत्म बलधारी सोलहवें स्वर्गमें देवपदको प्राप्त हुए। जो रत्नत्रय मोक्ष सुखका दाता है, ज्ञानको दीप्त करनेवाला है, परमातिशय प्राप्त बोधिका सदन है, उस रत्नत्रयका आराधन कर तीन लोकद्वारा पूजे जानेवाले निर्मल तीर्थकर नामकर्मको बाँधकर तथा उपशम भावको प्राप्त कर श्रीप्रभंजन गुरु भी सोलहवें अच्युत स्वर्गके सुखके भोक्ता हुए, एवं रत्नत्रय और तपकर युक्त, पूर्णभद्र यतींद्र भी निर्दोष गणधर संज्ञाके साधक नामकर्मको अपने तपद्वारा बाँधकर निर्दोष सोलहवें स्वर्गमें देव हुए। जगन्मान्य कामारि जंभाराति (इन्द्र) नमस्कृत, शान्तियुक्त शरीरवाले श्रीभानु, शुंद आदिके मुनि भी सरल सुंधाद्रि पर्वतके सुन्दर तलमें अपने शरीरको त्यागकर सबके सब स्वर्गके देवोंकी सुख सम्पत्तिको
SR No.022754
Book TitlePrabhanjan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherMulchand Jain
Publication Year1916
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy