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________________ ३. वैयावृत्ति अर्थात् बरदास्त, सेवा. ४. स्वाध्याय अर्थात् भणq भणावq विचार, वगेरे. ५. व्युत्सर्ग अर्थात् इंद्रिय अने क्रोधादिकने वशमां राखवां अने ६. ध्यान अर्थात् आत्मामां चित्तनी एकाग्रता.) २२. अने जुठा देव शास्त्रादिगोचर जे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्र छे, ते मोक्षनां साधन नथी, कारणके आ गरुड छे, एवं मानीने ध्यान घरेलु बगलं झेरने दूर करी शकतुं नथी; अर्थात् जेम झेर गरुडनुं ध्यान धरवाथीज दूर थाय छे, तेम गरुडना समान देखानार बगलाथी थइ शक्तुं नथी, तेज रीते मोक्षनी प्राप्ति साचा देव, साचा शास्त्रादिथी थइ शके छे. आप्तना समान देखानार जुठा देव अने जुठा शास्त्रादिथी नहि. २३. तमे तरतज ए रीतनुं तप करो, के जे सर्व प्रकारना दोषोथी रहित छे अने जे वीतराग अर्हत् परमेश्वरे जिनवाणीमां बताव्युं छे. फोकटमां चोखा विनानां छोडां खांडवाथी शो लाभ थशे ? २४. जे देवमां रागादिदोष विद्यमान छे, ते प्राणीओने भवसागरथी पार करी शकता नथी, कारण के जे पोतेज डूबनार छे, ते बीजानो हाथ पकडी शकता नथी. २५. ए जिनेश्वर प्रभु क्रीडा नथी, कारणके क्रीडा तो छोकरामांज देखाय छे. ते तो तृप्त अने ईच्छा रहित छे तेने क्रीडाथी शो लाभ ? जे तृप्त नथी, तेज क्रीडाथी पोताने तृप्त करवा ईच्छे छे. २६. ईश्वर स्वेच्छाचारी पण नथी, कारणके तेथी तेना ईशत्वमा हानि आवे छे अने अमे मनुष्यादिको साथे द्वेष कर
SR No.022747
Book TitleJivandhar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshatrachudamani
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1913
Total Pages132
LanguageHnidi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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