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बोध दिया है। अब मैं संसारवास से विरक्त हो चुका हूँ। और दीक्षा ग्रहण करनेवाला हूँ। इसलिए सज्जन पुरुष! तुम मेरे राज्य को ग्रहण कर लो। मैं शशिवेग राजा से क्षमा माँगकर, शीघ्र ही अपने वांछित फल को प्राप्त करूँगा।
किसी विद्याधर से यह वृत्तान्त जानकर, शशिवेग भी वहाँ आ गया। सुवेग ने उससे क्षमा माँगकर दीक्षा ग्रहण की। क्रम से रत्नशिखकुमार विद्याधर श्रेणि का स्वामी बना। पुण्यवंत प्राणी परदेश में भी उत्तम लक्ष्मी प्राप्त करते हैं। शशिवेग का भाई सूरवेग भी, अपने मामा की दीक्षा ग्रहण की बात सुनकर, बन्धु के द्वारा रोके जाने पर भी, वैराग्य से दीक्षा ग्रहण की। रत्नशिख राजा भी पूर्व के पुण्य से, विद्याधर के ऐश्वर्य को प्राप्तकर, जिनेश्वर भगवंत, गणधर तथा केवली भगवंत के चरणकमल में नमनशील होते हुए, उत्तम बोधिरत्न प्राप्त किया। पुण्यवंतों में अग्रगणनीय ऐसे रत्नशिख राजा ने कितने ही लाखों वर्ष पर्यंत उत्तमोत्तम सुख भोगे।
एक दिन अयोध्यानगरी में सुयशमुनि ने पदार्पण किया। मुनि को वंदनाकर, राजा ने अपने पूर्वभव के बारे में पूछा। तब मुनि भगवंत ने विस्तार से उसका चरित्र कहा। राजन्! यह संपूर्ण राज्य आदि समृद्धि भी तुझे पंचमंगल नमस्कार महामंत्र के प्रभाव से मिली है। इहलोक और परलोक में, नमस्कार महामंत्र किसके सुख के लिए नहीं हो सकता है? इस प्रकार मुनिभगवंत के वचनरूपी अमृत से पाप रूपी विष से रहित बने रत्नशिख ने दीक्षा ग्रहण की। केवल ऋद्धि प्राप्त कर, सिद्धगति पहुँचे। इस प्रकार रत्नशिख के चरित्र को सुनकर विमलकीर्ति राजा संसारवास रूपी पाश से मुक्त होकर मोक्ष सुख की इच्छा से, देवरथ को राज्य सौंपकर, स्वयं ने धर्मवसु गुरु के पास दीक्षा ग्रहण की। देवरथ भी अपनी प्रिया रत्नावली के साथ अच्छी प्रकार से गृहस्थ धर्म का पालन करने लगा। राज्य पुत्र को सौंपकर, आयु के क्षय हो जाने पर, दोनों ने आनतकल्प में देव-ऐश्वर्य प्राप्त किया। इस प्रकार एक सुंदर विमान में, प्रीति-परायण वे दोनों देव बने और आनंदपूर्वक उन्नीस सागरोपम पर्यंत अनुपम सुख भोगे।
इस प्रकार पं.श्रीसत्यराजगणि द्वारा विरचित श्रीपृथ्वीचंद्रचरित्र में, देवरथ का श्रमणोपासक चरित्र रूपी चतुर्थ भव वर्णन संपूर्ण हुआ।
पंचम भव पूर्वविदेह के पुष्कलविजय में, विशाला नगरी है। वहाँ पर सिंहसेन राजा राज्य करता था। मूर्तिमंत लक्ष्मी के समान उसकी प्रियंगुमंजरी रानी थी। वे दोनों दंपती प्रेम से सुखपूर्वक समय बीता रहे थे। छीप में मोती के समान, देवरथ का जीव स्वर्ग से च्यवकर, प्रियंगुमंजरी की कुक्षि में अवतीर्ण हुआ। पूर्णचंद्र को स्वप्न में देखने से, शुभ दिन में महोत्सवपूर्वक, पिता ने उस पुत्र का पूर्णचंद्र नाम
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