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दश सागरोपम आयुष्य पर्यंत दिव्य सुख भोगें।
इसी भरतक्षेत्र के मध्यखंड में, कुरुदेश के गजपुर नगर में श्रीवाहन राजा राज्य करता था। उसकी लक्ष्मीश्री रानी थी। इंद्र का जीव भी ब्रह्मदेवलोक से च्यवकर, रानी की कुक्षि में पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुआ। रानी ने चौदह स्वप्न देखें। रानी का जीव भी ब्रह्मदेवलोक से च्यवकर, उसी नगरी के बुद्धिसागर मंत्री की सुदत्ता पत्नी में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। राजपुत्र का प्रियंकर तथा मंत्रीपुत्र का मतिसागर नाम रखा गया। बाल्यावस्था से ही वे दोनों परस्पर स्नेहशील थे। संपूर्ण कलाओं को ग्रहणकर, वे दानों यौवन अवस्था में आएँ। राजा ने बहुत-सी राजकन्याओं के साथ प्रियंकरकुमार का विवाह किया। मंत्री ने भी अनेक मंत्रीकुल की कन्याओं के साथ मतिसागर का विवाह किया।
____एकदिन श्रीवाहन राजा ने श्रीश्रुतसागर गुरु की देशना सुनी। वैराग्य प्राप्तकर, प्रियंकरकुमार का राज्याभिषेक कर दीक्षा ग्रहण की। बुद्धिसागर ने भी मतिसागर को मंत्रीपद देकर गुरु के पास दीक्षा ग्रहण की। एकदिन प्रियंकरराजा की शस्त्रशाला में दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। पश्चात् राजा ने षट्खंड जीत लिए। बत्तीस हजार सामंत राजाओं से सदा सेवित, चौसठ हजार अंतःपुर स्त्रियों से युक्त वह प्रियंकर चक्रवर्ती बहुत-से पूर्वलक्ष पर्यंत अपने भुजाओं से अर्जित मनोहर भोगों को भोगने लगा। बहुत से मंत्री होने पर भी चक्रवर्ती का मतिसागर पर अत्यधिक स्नेह था। मतिसागर भी चक्रवर्ती को देव, गुरु, बंधु, चित्त, सर्वस्व तथा खुद के प्राणों के समान मानता था। वे दोनों इस गाढ़ स्नेह से विस्मित थे। एक दिन वहाँ पर श्रीसुप्रभ तीर्थंकर पधारे। तीर्थंकर का आगमन सुनकर, वे दोनों बडे आडंबरपूर्वक चतुरंग सेना के साथ अंतःपुर सहित वंदन करने गएँ। राजचिह्न छोडकर, तीन प्रदक्षिणा देकर, अंजलि जोड़कर, भगवान् की देशना सुनने बैठे। तब भगवान् ने इस प्रकार देशना प्रारंभ की - भव्यप्राणियों! जन्म, जरा, मृत्यु से आकुलित इस दुःख आवर्त्तवाले भवसमुद्र में पुण्य रूपी जहाज में चढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए। संपदा प्राप्त करने के लिए परिश्रम कर रहे प्राणीगण मनोरथ तूट जाने पर दुःखित होतें है। कितने ही प्राणी संसार समुद्र को तीरने में समर्थ होते हुए भी कुग्रहों से ग्रसित होकर डूब जातें हैं। कितने ही प्राणी संसार समुद्र प्रायःकर तीर जाने पर भी प्रमाद के वश से नीचे गिर जातें हैं। इसलिए भव्यप्राणियों! जागो
और भयंकर संसार समुद्र में मोहित मत बनो। अप्रमत्तता रूपी पुण्यजहाज से संसार सागर का उल्लंघनकर शाश्वत सुखवाले मुक्तिपद को प्राप्त करो। भगवान् की देशना सुनकर उन्होंने कहा - प्रभु! यह सत्य है कि धर्म बिना भवसमुद्र दुस्तर है। हमने आपकी कृपा से, शुद्ध स्वरूप के बारे में जान लिया है। फिर भी हम दोनों परस्पर गाढ़ स्नेह का कारण जानना चाहते हैं। तब भगवंत ने उन दोनों के
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