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और अंतःपुर सहित वंदन करने निकला। समवसरण दिखायी देने पर राजचिह्न छोड दिएँ और विधिपूर्वक वंदनकर उचित स्थान पर बैठा। भगवान् के तत्त्व वचन रूपी अमृतपान से संसार की असारता समझकर संवेग मनवाला बना। पुत्र को राज्य सौंपकर, रानी के साथ दीक्षा ग्रहण की। चिर समय तक निरतिचार चारित्र का पालन किया। अंत में संलेखनाकर समाधिपूर्वक काल किया और दोनों ईशान देवलोक में पाँच पल्योपम आयुष्यवालें देव-देवी हुए।
देव भोगों को भोगकर, ललितांग देव का जीव स्वर्ग से च्यवकर इसी जंबूद्वीप के सुकच्छविजय की विश्वपुरी नगरी में सुरतेज राजा की पुष्पावती रानी की कुक्षि में पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुआ। संपूर्ण समय हो जाने पर, रानी ने पुत्र को जन्म दिया। उसका देवसेन नाम रखा गया। क्रम से बढता हुआ शस्त्र और शास्त्र कला में प्रवीण हुआ। तारुण्य अवस्था प्राप्त करने पर भी स्त्रियों से विमुख था किंतु गुणग्रहण के संमुख था। उन्मादयन्ती का जीव भी देवलोक से च्यवकर उसी विजय में, वैताढ्यपर्वत की दक्षिण श्रेणी में, सुरसुंदरपुर नगर में विद्याधर शिरोमणि रविकिरण राजा की रविकांता पत्नी की कुक्षि में पुत्री के रूप में अवतीर्ण हुयी। क्रम से माता ने उसे जन्म दिया और उसका चंद्रकांता नाम रखा गया। चौसठ कलाओं में भी कुशल हुयी, किंतु पुरुषों से पराङ्मुख थी। सखियों के द्वारा राजकुमारों का वर्णन करने पर भी, चंद्रकांता उनका नाम भी सहन नही करती थी। इससे माता-पिता चिंतातुर रहने लगें।
एक दिन चंद्रकांता सखियों के साथ उद्यान में क्रीडा करने गयी। वहाँ पर किन्नर का युगल तान-मान सहित मधुर स्वर में देवसेनकुमार का गुण-गान कर रहा था। उसे सुनकर चंद्रकांता आनंदित हुयी। उसके भाव जानकर, सखी ने किन्नर युगल से पूछा - जिसके गुणों का आप दोनों वर्णन कर रहें है, वह देवसेनकुमार कौन है? तब उन्होंने कहा -पृथ्वी पर स्वेच्छा से विचरण करते हुए हम दोनोंने विश्वपुरी के बाह्य उद्यान में देवसेनकुमार को देखा था। उसके रूप के सामने कामदेव भी न्यून दिखायी देता है। चंद्र से अधिक सौम्य, सूर्य से अधिक प्रतापवान् और बृहस्पति से अधिक बुद्धिशाली है। जो सदैव दान से भिक्षुकों को, मान से मानियों को और संतोष से मित्रों को आनंद देता है। पश्चात् सखी ने चंद्रकांता से कहा - यहाँ आकर बहुत समय बीत चुका है। माता चिंता कर रही होगी। इस लिए अब हमें चलना चाहिए। महल में पहुँचने पर भी उसका हृदय कही पर नही लग रहा था। सखी ने माता के आगे सब कुछ कह दिया। चंद्रकांता के भाईयों में विद्याधरों को उच्च तथा भूचर मनुष्यों को जघन्य सिद्ध करना चाहा, किंतु चंद्रकांता के दलिलों के सामने वे निरुत्तर हो गएँ। इस चर्चा से, पिता ने चंद्रकांता का देवसेनकुमार पर पूर्वभव के स्नेह को परख लिया।
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