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तुझे विपरीत करने का अधिकार नहीं है। मैं तेरे हित के बारे में कह रहा हूँ कि तुम राजा के आदेश का पालन करो। बाद में बलजबरी से रतिसुंदरी को ग्रहण करते महेन्द्र राजा को कौन निषेध कर सकता है? तब भ्रूकुटी चढ़ाकर चंद्रराजा ने कहाकुलीन पुरुषों को दूसरों का स्त्री पर नजर करना योग्य नहीं है। महेन्द्रराजा का यह कौन-सा कुलाचार है? यह उसकी कौन-सी मर्यादा है? कैसा जीवन है? उसके पास कौन-सा राज्य है? और कैसी लज्जा है? अन्याय की इच्छा करनेवाले उसके पास कौन-सा न्याय है? यौवन अवस्था के मद से, रहस्य में जो माता ने आचरण किया था, वही चेष्टा ऐसे आचरणों से उसके पुत्र भी करते हैं। यह बात घट नहीं सकती कि कोई अपनी पत्नी दूसरे को समर्पित करे। क्या जीवित सर्प के पास से मणि, और सिंह के केसर ग्रहण किये जा सकते हैं? इस प्रकार चंद्रराजा ने दूत का तिरस्कार कर, अपने सुभटों के द्वारा बाहर निकाल दिया।
दूत ने यह बात जाकर महेन्द्रराजा से कही। राजा क्रोधित होकर युद्ध के लिए तैयार हुआ। दोनों सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ। भाग्य के योग से, महेन्द्रराजा ने चंद्रराजा को बांध लिया। चंद्रराजा की सेना पराजित होकर भागने लगी। रतिसुंदरी को ग्रहणकर महेन्द्रराजा अपनी नगरी की ओर प्रयाण किया और चंद्रराजा को कैद से मुक्त कर दिया। महेन्द्रराजा उससे कहने लगा-तेरे बारे में सुनने के बाद, तुझ पर राग जगा था। इसलिए यह युद्ध तेरे लिए ही किया है। प्रिये! मुझे स्वीकारकर, मेरे प्रयत्न को सफल करो। यह सुनकर रतिसुंदरी सोचने लगीदुःख के समूह को उत्पन्न करनेवाले मेरे रूप को धिक्कार हो। हा! मेरे लिए ही आर्यपुत्र ने अपने प्राणों को संकट में डाल दिये थे। क्योंकि महेन्द्रराजा का कुशीलत्व ही इस बात को व्यक्त कर रहा है। पापी ऐसे इस राजा से, मैं अपनी शील की रक्षा किस प्रकार करूँ? बुद्धिमंत मनुष्यों को अशुभकार्य में विलंब करना चहिए। इस प्रकार सोचकर शांति से रतिसुंदरी ने कहा-मुझे नियम है कि चातुर्मास पर्यंत मैं शील का खंडन नहीं करूंगी। महेन्द्रराजा ने यह बात स्वीकारी। उससे थोड़ी स्वस्थ बनी रतिसुंदरी, तप करने में तत्पर बनी। वह स्नान, विलेपन
और आभूषण आदि का उपयोग नहीं करती थी। क्रम से वह दावानल से जलाई हुई कमलिनी के समान, अत्यन्त कृश देहवाली बनी।
एक दिन महेन्द्रराजा ने मल से लिप्त देहवाली तथा मलिन वस्त्र धारण की हुई रतिसुंदरी से पूछने लगा-भद्रे! तूने किस कारण से यह दशा प्राप्त की? उसने कहा-जो मैंने इस कठिन व्रत का स्वीकार किया है, उससे कृश बनी हूँ। तथापि मैं इस व्रत का पालन करूँगी, क्योंकि व्रतभंग भवोभव दुःखदायी होता है। राजा ने पूछा-भद्रे! तुझे यह अद्भुत वैराग्य कैसे आया? उसने कहा-राजन्! यह मेरा शरीर ही वैराग्य का कारण है।
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