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राजा के पास गयी। क्रोध सहित उपालंभ देते हुए राजा से कहा-आपको धिक्कार है, जो अंतःपुर की राजकन्याओं को छोड़कर, परस्त्री के संग की इच्छा कर रहे हैं। अपने आधिन स्त्रियों से विरक्त होकर, परस्त्रियों पर रागी बन रहे हैं। कहा गया है कि - खुद के आधीन स्त्रियाँ होने पर भी नीच पुरुष परस्त्रियों में रागी बनता है। सरोवर भरा हुआ होने पर भी कौंआ घड़े के पानी को पीता है। रानी की बातें सुनकर, राजा शर्म से झुक गया और जवाब देने में भी असमर्थ हुआ। बाद में धन आदि वापिस देकर, विनयन्धर और उसकी स्त्रियों को छोड़ दिया।
पुनः घर में लौटने के बाद, वे सहज रूपवाली बन गयी। उस कारण को जानने की कुतूहलता से, राजा किसी ज्ञानी की राह देखने लगा। दूसरे ही दिन, उद्यान में चार ज्ञान के धारक गुरु भगवंत पधारे। उनको वंदन करने के लिए राजा भी नागरिकों के साथ चला। देशना सुनने के बाद राजा ने उनसे पूछा-प्रभु! पूर्वभव में विनयन्धर के जीव ने ऐसा कौन-सा उत्तम पुण्य उपार्जन किया था, जिससे इसको स्वर्ग की देवियों के समान स्वरूपवान् पत्नीयाँ मिली हैं? और किस कारण से वे महल में कद्रूपी बनी थीं? सूरिभगवंत ने कहा-गजपुर में विचारधवल नामक राजा राज्य करता था। राजा को दया, उदारता आदि गुणों से युक्त एक स्तुतिपाठक/चारण था। एक दिन मुनि की देशना सुनकर उसने अभिग्रह ग्रहण किया कि-किसी सुपात्र को सुंदर अशन आदि देकर ही, मैं भोजन करूँगा।
____ एक दिन बिन्दु नामक उद्यान में, नौंवे जिनेश्वर श्री सुविधिनाथ भगवान् के बिंब समक्ष चारण ने नमस्कार, स्तुति आदि की। बाद में पात्र को भोजन देकर, स्वयं ने भोजन किया। भाग्य के योग से, एक दिन उस चारण के घर श्री सुविधिनाथ भगवान् पधारे। उसने प्रभु को निर्दोष (प्रासुक) भोजन वहोराया। तब दान के महात्म्य से पाँच दिव्य प्रकट हुए। और देव-मनुष्य भी उसका चारणत्व करने लगे। चारण ने बोधिलाभ प्राप्तकर आयुष्य पूर्णकर, धर्म के प्रभाव से सौधर्म देवलोक में देव हुआ। वहाँ से च्यवकर इस नगर में यह श्रेष्ठी विनयन्धर हुआ है। राजन्! इसको दानधर्म रूपी कल्पवृक्ष फलित हुआ था। उससे हे भव्यप्राणियों! तुम भी दानधर्म के विषय में आदर से प्रयत्न करो। यही विनयन्धर का पूर्वभव है। अब उसकी चारों पत्नीयों का पूर्वभव सुनें।
इसी पृथ्वीतल पर शत्रुओं से आक्रमण न की जा सके ऐसी अयोध्या नामक महानगरी थी। यत्नपूर्वक नरकेशरी राजा अयोध्या पर राज्य करता था। उसके अंतःपुर की मुख्य रानी कमलसुंदरी थी। उन दोनों की सुशील, कला से युक्त रतिसुंदरी नामक पुत्री थी। उसी नगरी के श्रीदत्त नामक मंत्री की बुद्धिसुंदरी पुत्री, सुमित्र नामक श्रेष्ठी की ऋद्धिसुंदरी पुत्री और सुघोष पुरोहित की गुणसुंदरी पुत्री थी। समान उम्रवाली इन चारों कन्याओं में परस्पर मैत्री थी। वे साथ में ही
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