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के वृक्ष पर फल नहीं होते हैं, और वड, उदुंबर (उमरडे) के वृक्ष पर फूल नहीं होते हैं, देवी! वैसे ही तेरी आत्मा पर भी दोष का निशान नहीं है। अज्ञानरूपी अंधकार से अंध बने मैंने, तेरे में दोष की कल्पना की। मेरा यह सब अपराध तुम क्षमा करो। इस प्रकार दोनों विविध संभाषण करने लगे। सूर्योदय होने पर, वे दोनों साथ मिलकर गुरु के पास गये। गुरु को वंदनकर, आनंद से उनकी देशना सुनी। देशना के अंत में, राजा ने वंदनकर अमिततेज गुरु से पूछा-भगवन्! कलावती ने पूर्व जन्म में ऐसा कौन-सा कठोर कार्य किया था, जिससे निरपराधी होते हुए भी, मैंने इसके दोनों भुजाएँ कटवा दी। अमिततेज गुरु कहने लगे
___महाविदेह में महेन्द्रपुर नामकं नगर था। वहाँ शत्रु वर्ग को भयभीत करनेवाला नरविक्रम राजा राज्य करता था। उसकी पत्नी लीलावती थी और सुलोचना नामक पुत्री थी। यौवन अवस्था प्राप्त करने पर भी, सुलोचना खेलकूद आदि कुतूहल में अत्यन्त आसक्त थी। शुद्ध शील से युक्त थी और कामदेव से पराङ्मुख थी। अन्यदिन राजसभा में पिता के समीप बैठी हुई थी। तब राजा को भेंट के रूप में एक सुंदर तोता मिला था। सुलोचना कुमारी उसे अपने हाथ में लेकर पढ़ाने लगी। कुमारी ने अपने मन को बहलाने के लिए तोते को ग्रहणकर, स्वर्ण पिंजरे में डाल दिया। उसे दाडम, द्राक्ष आदि फलाहार देती। अपनी गोद में रखकर, हाथ में लेकर, हृदय पर रखकर अथवा पिंजरे में ही रखकर कुमारी श्याम वर्णवाले उस तोते को पढ़ाती। आसन, शयन करते समय, वाहन में बैठते समय, भोजन करते समय अथवा राजसभा में जाते समय, अपनी आत्मा के समान उस तोते को कभी दूर नहीं करती थी।
अन्यदिन सुलोचना कुमारी अपनी सखि तथा पिंजरे में रहे तोते को साथ लेकर कुसुमाकर नामक नगर के उद्यान में गयी। वहाँ जिनमंदिर में रहे श्री सीमंधर स्वामी को भक्ति भाव से नमस्कार कर आनंदित हुई। कुमारी की जिनभक्ति देखकर तोते को भी जातिस्मरण ज्ञान हुआ। तोते ने स्मरण किया कि मैं पूर्वभव में साधु था। शुद्ध सिद्धांत का अध्ययन करता था, किन्तु मैंने उपधि का परिग्रह रखा हुआ था। व्रत की विराधना करने से, मैं मरकर इस जन्म में तोता बना हूँ। मुझे धिक्कार हो, जो ज्ञानरूपी देदीप्यमान दीपक हाथ में होने पर भी मोहान्ध बना। अब मैं इस तिर्यंचभव रूपी संकट के खड्डे में गिरा हुआ हूँ। भाग्य से मैंने इस अवस्था में भी भवपार पहुँचानेवाले प्रभु के दर्शन पाये हैं। जिनेश्वर भगवंत को वंदना कर ही मैं भोजन करूँगा। इस प्रकार तोते ने अभिग्रह ग्रहण किया। कुमारी तोते को लेकर वापिस अपने महल में आ गयी। जब वह तोते को पिंजरे से बाहर निकालकर, खिलाने के लिए बैठी, तब 'अरिहंतों को नमस्कार हो' इस प्रकार कहकर उड़ गया। जिरेश्वर भगवंत को नमस्कार करने के पश्चात् ही वह
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