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सकल कलाओं में निष्णात बन गया। देदीप्यमान अत्यंत लावण्यवाले उसने तारुण्य अवस्था का आश्रय लिया।
मथुरा के राजा महाकीर्ति ने अपने महाद्युति नामक प्रधानमंत्री के द्वारा कुसुमायुध राजा से निवेदन कराया कि-देव! भिन्न-भिन्न माताओं से उत्पन्न तथा तीक्ष्ण बुद्धि रूपी वैभव से युक्त हमारी इष्ट, शिष्ट और कोमल ऐसी आठ कन्याएँ हैं। ये परस्पर अत्यंत प्रेमशील हैं और अत्यंत निपुण हैं। परंतु कोई भी राजपुत्र आज तक इनको ज्ञानगोष्ठी में जीतने में समर्थ नहीं हुआ है। कुसुमकेतु के अद्भुत गुण-वैभव के बारे में सुनकर, वें एकचित्तवाली बनकर उसीका ध्यान धर रही हैं और वारंवार उसी का गुणगान कर रही हैं। इसलिए किसी भी प्रकार से कुसुमकेतु को शीघ्र भेजकर, उनके मन की शांति का उपाय करें। आगे क्या कहूँ? जबतक कुसुमायुध राजा ने मंत्री को प्रिय प्रत्युत्तर दिया, तब जयतुंग राजा के दूत ने आकर राजा से इस प्रकार विज्ञप्ति की-राजन्! आजन्म से अत्यंत देदीप्यमान गुणसमूह से युक्त हमारी सोलह कन्याएँ तारुण्य अवस्था में आयी हैं। एकदिन नैमित्तिक ने इन सोलह कन्याओं से इष्टप्रद बात कही कि-गुणों से उत्तम और अन्यून तथा विपुल सामर्थ्य से युक्त आपका कुसुमकेतु कुमार वर होगा। इसलिए प्रभु! इन कन्याओं के साथ पाणिग्रहण करने के लिए परिवार सहित अपने पुत्र को शीघ्र भेजें। इसी बीच अयोध्यानगरी के मंत्री ने आकर राजा से कहा-दिक्कुमारियों के समान हमारी गुणवान् आठ कन्याएँ हैं। देव! उनके वर के लिए मैं आपसे निवेदन कर रहा हूँ। अपने पुत्र कुसुमकेतु को उनके साथ विवाह करने के लिए भेजें।
कुसुमायुध राजा ने कहा-कुमार एक है, इसलिए पहले कहाँ भेजा जाएँ? तुम तीनों का प्रस्ताव अलंघनीय है। यदि मैं किसी एक स्थान पर भेजूंगा तो शेष दोनों की अवहेलना होगी। तब बुद्धिमान् मंत्री ने कहा-कुमार यही पर रहे। कन्याएँ स्वयं ही वरने के लिए इधर आएगी। यह बात सभी को सम्मत है इस प्रकार कहकर राजा ने मंत्री की बात स्वीकार की। उचित समय पर कन्याएँ भी वहाँ पर
आ गयी। कुमार ने उनके साथ विवाह किया। दौगुन्दुक देव के समान उनके साथ विलास करता हुआ विचक्षण कुमार ने कितने ही वर्षों को पलभर के समान बीता दिए। एक दिन पुरंदर आदि पाँचसो श्रमणों से युक्त सुंदरमुनि उद्यान में पधारे। कुसुमायुध राजा ने उनको नमस्कार कर देशना सुनी। राजा प्रतिबोधित हुआ और कुसुमकेतु से कहने लगा-वत्स! स्वच्छ! राज्य का भार ग्रहण करो। समाधि से युक्त अब मैं श्रीसुंदर गुरु के पास व्रत ग्रहण करने के लिए तत्पर बना हूँ। कुसुमकेतु ने कहा-पिताजी! आपके बिना मैं क्षणमात्र भी रुकना नहीं चाहता हूँ। इसलिए मैं भी आपके साथ दीक्षा ग्रहण करूँगा। उसके आग्रह को जानकर, राजा
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