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________________ धन्य-चरित्र/421 जिनशासन और अपने कुल को उद्योतित किया है। पुनः आपके जामाता नाम से तो धन्य हैं ही, उपकार से भी धन्य हैं और सम्यग् बुद्धि से भी धन्य हैं। अनुपम धर्माचरण से धन्य हैं। दुर्जनता के दोष से ग्रसित अपने ही भाइयों के अनेक प्रकार से किये गये ईष्या भाववालों को भी अपने सज्जन-स्वभाव से विनय युक्त परिपालन करने से धन्य हैं। उस धन्य के धैर्य की क्या प्रशंसा की जाये? जिसने उपदेश आदि किसी भी पुष्ट कारण के बिना आठों ही स्त्रियाँ एक साथ त्याग दी, समस्त ऐहिक सुखों के समूह को पूर्ण करने में समर्थ जड़मय चिन्तारत्न त्यागकर चारित्र रूपी चिन्तामणि रत्न को एक ही लीला में ग्रहण कर लिया और जिस प्रकार ग्रहण किया, उसी प्रकार प्रतिक्षण प्रवर्धमान परिणामों द्वारा उसका पालन भी किया। कर्मों की सम्पूर्ण सन्तति का नाश करने के लिए आराधना की जयपताका को ग्रहण कर लिया। अतः यह धन्यों से भी धन्य-तम हो गया। जो इन मुनि का नाम भी स्मरण करता है, वह भी धन्य है। धन्य वह क्षण है, जिस क्षण में इसका स्वरूप स्मृति पर आता है। अतः हे वृद्धे! उत्साह के स्थान पर आप विषाद क्यों करती हैं? पूर्व में भी तो अनेक माता-पुत्रादि सम्बन्ध हुए हैं, वे सभी संसार का अन्त करने में असमर्थ होने से व्यर्थ ही हैं। आपका यह संबंध ही सत्य है, जिसके गर्भ में आकर शालिभद्र सुर-नरेन्द्रादि के देखते ही देखते मोह रूपी शत्रु का उन्मूलन करके निर्भय हो गया। अतः अब आपके द्वारा चारित्र की अनुमोदनापूर्वक सहर्ष बहुमानपूर्वक वन्दन-नमन-स्तवनादि करना चाहिए, जिससे आपको भी प्रयोजन की सिद्धि हो।" इस प्रकार अभय के द्वारा जिन-वचनों के अमृत-सिंचन से भद्रा के विषम-मोह-विष के फैलाव को उतारा गया और शोक को छुड़वाकर भद्रा को धर्ममुखी किया गया। फिर राजा, अभय, बंधुओं सहित भद्रा आदि भावपूर्वक उन दोनों को नमन करके, उन दोनों के गुणों का स्मरण करते हुए अपने-अपने घर चले गये। उधर वे दोनों मुनि-पुंगव एक मास तक यावत् संलेखना की आराधना करके अन्त में शुद्ध उपयोग में लीन चित्तवाले होकर समाधि मरण द्वारा काल करके अनुत्तर सुख से भरे सर्वार्थसिद्ध नामक पाँच अनुत्तर विमान में से मुख्य विमान में उत्तम देव के रूप में पैदा हुए। वहाँ देवों की आयु तेतीस सागरोपम की बतायी गयी है। तेतीस हजार वर्षों के बाद आहार की रुचि जागृत होती है, तब तत्क्षण अमृत उद्गार भूख को शान्त करने के लिए आ जाता है। तेतीस पक्ष से एक श्वासोच्छवास ग्रहण करते हैं। अगर इनकी मुट्ठी में सात लव समाने जितना आयुष्य और अधिक होता, तो ये मुक्ति में चले जाते अथवा
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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