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________________ धन्य-चरित्र/420 है। जिन्होंने अनशन किया है, अब उनकी क्या आशा है? मेरे चारों हाथ भूमि पर धराशायी हो गये। अब पुत्र व दामाद का मुख कहाँ से देखूगी? अहो! मैं सभी स्त्रियों के बीच निर्भाग्य शिरोमणि बन गयी हूँ।" इस प्रकार विषाद से मूर्छित भद्रा को देखकर श्री श्रेणिक, अभयादि ने अपने वचनामृत द्वारा सिंचन कर उसे सचेत किया। फिर अभय ने कहा-"हे माता भद्रे! यहाँ इस प्रकार का खेद करना आपके लिए युक्त नहीं है। आप तो महान से भी महान हैं, सभी माननीयों के द्वारा भी आप माननीय हो। अतः व्यर्थ ही शोक मत करो। इस लोक में अनेक नारियों ने अनेक पुत्रों को पैदा किया है। उन पुत्रों के मध्य कुछ ही 72 कलाओं से कुशल, यौवन के प्राप्त होने पर बहुत-सी स्त्रियों के साथ पाणिग्रहण करते हैं। पूर्व-पुण्य से धनधान्यादि से सम्पन्न होकर पहले कभी प्राप्त न किये हों, इस प्रकार कामभोगों में मूर्छित हो जाते हैं। वे एकमात्र भोग रसिकता बढ़ाते हुए भोगों को भोगते हैं। क्षण भर के लिए भी विषयों का त्याग नहीं करते। अपनी आयु–पर्यंत भोगों को भोगकर बाद में नरक-निगोद आदि में परिभ्रमण करते हैं और जो पुण्य रहित तथा जन्म से निर्धन हैं, वे विषयों की आशा से प्यासे रहते हुए अट्ठारह पापस्थानों का सेवन करते हैं। पर पुण्य के बिना उन्हें धनादि की प्राप्ति नहीं होती। वे अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके नरक-निगोद में परिभ्रमण करते पर आप तो रत्नकुक्षि-धारिणी हैं, वीर सन्तान को उत्पन्न करनेवाली हैं। क्योंकि आपके पुण्य की निधि रूप कुलदीपक उत्पन्न हुआ है। जिनत्व व चक्रीत्व उभय पद से विभूषित पुरुषोत्तमों ने भी आपके पुत्र सदृश भोगों को नहीं भोगा, क्योंकि स्वर्ण-रत्नादि को बासी करके किसी ने भी त्यागा हो, यह कहीं भी नहीं सुना। ऐसा कोई पैदा भी नहीं हुआ। ऐसा कार्य आपके पुत्र ने निःशंक रूप से किया, मन-वांछित भोग भोगे और अवसर आने पर उनका तृणवत् त्याग भी किया। श्री वीर प्रभु के पास सुरेन्द्र, नरेन्द्र आदि करोड़ों लोगों से भी दुर्जय, जगत-जनों को अपरिमित दुःखदायक मोह रूपी राजा को आपके पुत्र ने क्षण भर में जीत लिया। ऐसा सामर्थ्य आपके पुत्र में ही है, अन्य में नहीं। पुनः मोह को जड़ से उखाड़कर, सिंह की तरह चारित्र ग्रहण करके, सिंह की तरह ही पालन करके सम्पूर्ण कर्म-समूह के उन्मूलन के लिए आराधना की जयपताका ग्रहण की है। श्री गौतम गणाधीश की सहायता से उसे अजर-अमर पद की प्राप्ति होगी। उसके लिए दुःखी क्यों होती हैं? अगर संसार समुद्र में डूब गया होता, तब तो चिन्ता करनी चाहिए थी। पर इसने तो जन्म, जरा, मरण, रोग, शोकादि से रहित सच्चिदानन्द सुख की सम्पत्ति प्राप्त की है, उसका दुःख क्यों धारण करती हैं? आपके पुत्र ने तो श्रीमद्
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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