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धन्य - चरित्र / 376
नाटक मैं अभी तक नहीं भूल पाया।"
यह सुनकर धर्मदत्त ने कहा- "स्वामी! जो मानवी आपने देखी है, वह मेरी प्रिया ही हो सकती है। इसी वन में मेरी पत्नी का भी किसी ने हरण कर लिया है। अतः आप शीघ्र ही चलें। वहाँ जाकर मैं उसे देखता हूँ ।"
वे दोनों वहाँ से चले। जब वे यक्षगृह पहुँचे तो नृत्य समाप्त हो चुका था । यह देखकर धर्मदत्त हाथ मलते हुए बार-बार राजकुमार से पूछने लगा - "वह कितने वर्ष की थी? उसका वर्ण कैसा था? कैसा मुख था?"
कुमार ने जैसा देखा था, निपुणता के साथ वैसा ही बताया। यह सुनकर धर्मदत्त ने कहा-“स्वामी! स्वर्णपुरुष जाने दीजिए। आप तो मेरी पत्नी मुझे वापस दिला दें।"
राजकुमार ने कहा - " तुम चिन्ता मत करो। जब तक शरीर में प्राण हैं, तब तक उसे वापस लाकर ही दम लूंगा - यह मैं प्रतिज्ञा करता हूँ।”
प्रभात होने पर पुजारी ने आकर द्वार खोला। तब उन दोनों ने अन्दर जाकर यक्ष को नमस्कार किया और बैठ गये । तब कुमार ने विचार किया कि मैंने इसकी प्रिया को वापस लाने की जो प्रतिज्ञा की है, वह देव की सहायता के बिना सफल नहीं होगी। अतः मैं यक्ष की आराधना करता हूँ । इष्ट की सिद्धि के लिए आपकी ही शरण है - इस प्रकार विचार करके निश्चल चित्तवाला होकर उसी यक्ष का ध्यान करने लगा। तीसरे उपवास - वाली रात्रि में सिंह - बाघ - सर्पादि भयंकर रूपों के द्वारा क्षोभित किये जाने पर भी कुमार ध्यान से चलित नहीं हुआ । अतः अत्यद्भुत साहस देखकर यक्ष ने प्रकट होकर कहा - "मैं तुम्हारे धैर्य से प्रसन्न हुआ। कहो, क्या चाहते हो ? माँगो । "
यह कहने पर कुमार ने कहा - "देव ! मेरे मित्र धर्मदत्त की पत्नी मुझे सौंप
दो ।"
नहीं है । "
यक्ष ने कहा- "यह मेरे अधिकार में नहीं है ।"
कुमार ने कहा - " तो किसके अधिकार में है?”
यक्ष ने कहा—“वह मेरी प्रिया को दी हुई है, अतः तुम्हें देना मेरे लिए शक्य
कुमार ने कहा- "कैसे?"
यक्ष ने कहा-“सुनो, एक बार मैं अपनी प्रिया क साथ वन में गया। वहाँ इच्छानुसार परिभ्रमण क्रिया करते हुए मेरे द्वारा वह दिव्य रूपवाली मेनका से भी सुन्दर स्त्री सोयी हुई देखी । मैंने विचार किया कि ऐसी मानवी मेरे दृष्टि पथ पर कभी नहीं आयी। इस महान आश्चर्यकारिणी स्त्री को आश्चर्य - प्रिया मेरी पत्नी को सौंप दूँ तो वह इसे देखकर प्रसन्नचित्त हो जायेगी। यह विचार कर मैंने इसका अपहरण कर मेरी प्रिया के पास इसे छोड़ दिया । वह उसे देखकर अत्यन्त प्रमुदित