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________________ धन्य-चरित्र/327 महाराज महत्त्व की बीजरूप महाकृपा का वर्षण करेंगे, जिससे समस्त नगर में आपके घर की यश-प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी और दुर्जनों के मुख म्लान हो जायेंगे। मैं एक ही सुखासनपूर्वक अश्व पर सवारी करवाकर, राज-सम्मान दिलाकर पुनः यहाँ ले जाऊँगा । अतः आप शीघ्र ही उसे मेरे साथ भेज दीजिए। अन्य कितने ही महा-इभ्य राजा से मिलने के लिए राजद्वार पर आकर अत्यधिक द्रव्य का व्यय करते हैं। आ–आकर वापस लौट जाते हैं, पर राजा के दर्शन उन्हें प्राप्त नहीं होते। हम जैसों की सेवा करते हैं, हमें विनति भी करते हैं, फिर भी कोई राजा से मिल पाते हैं और कोई नहीं भी मिल पाते। पर आपके पुण्यवान पुत्र से मिलने के लिए तो राजा स्वयं आतुर है। अतः आपको किसी भी प्रकार का संकोच नहीं करना चाहिए।" __ अभय के इन वचनों को सुनकर प्रसन्न होते हुए भद्रा ने कहा-"स्वामी ने जो कुछ भी का, वह सत्य है। जगत में रत्न के समान आप जैसों के वचनों में कैसी अधीरता? कौन मूर्ख इन वचनों पर तर्क-विर्तक करेगा? मैं भी आपकी कृपा से जानती हूँ कि इस लोक में लज्जा, प्रतिष्ठा, मान महत्त्व, यश, ख्याति, शोभा, समृद्धि, सुख, सौभाग्य, शत्रुओं पर विजय आदि-इन सब कार्यों का एक मात्र निर्बाध हेतु राज–सम्मान ही है। राजद्वार पर चले जाना-मात्र ही सभी विघ्नों का नाश-स्वरूप दिखाई देता है। क्योंकि कहा भी है गन्तव्या राजसभा, द्रष्टव्या राजपूजिता लोकाः। यद्यपि न भवन्त्यथास्तथाप्यनर्था विलीयन्ते ।। अर्थात् राजसभा में जाना और राज-पूजित लोगों की नजर पड़ना-इनसे विघ्न नही आते और अनर्थों का नाश होता है। तो अगर राजा स्वयं बुलाते हैं, तो फिर कहना ही क्या? यह तो परम पुण्य के उदय का सूचक और सम्पूर्ण अभीष्टों का साधक है-ऐसा मैं भी जानती हूँ। परन्तु मेरा शालिभद्र राज-सभा के व्यवहार को नही जानता है, क्योंकि वह कभी राजदरबार गया ही नहीं है। राजसभा में 36 प्रकार के राजकुलीन नर होते हैं। वहाँ यह नहीं जान पायेगा कि कौन पहले नमन के योग्य है और कौन बाद में नमनीय है। राजसभा में यह बोलना चाहिए, यह नहीं बोलना चाहिए तथा यहाँ बैठना चाहिए-आदि कुछ भी नही जानता है। और भी, राजसभा में तो बहुत से धनवान, महा-इभ्य श्रेष्ठीगण, बहुत मंत्रीगण और बहुत से क्षत्रिय कुल उत्पन्न व्यक्ति होंगे। उन सबमें आगे कौन है? बाये कौन है? दायें कौन है? ज्येष्ठ कितने हैं? कनिष्ठ कितने है? इनके बीच कैसे बैठना चाहिए? इन सबका अनुभव नहीं होने से शालिभद्र कुछ भी नही जानता है। तो फिर, वहाँ आकर वह कैसे प्रशंसित होगा? महाराज की पूर्ण कृपा से वह आज तक घड़ी मात्र भी पराधीन भाव से नहीं रहा है। इसे राजद्वार जाकर आने से हजार कोस परिभ्रमण करने जितना श्रम उठाना पड़ेगा। अतः इस सेवक पर अगर महाराज की एकान्त कृपा है, सेवक को क्षण मात्र का भी कष्ट न हो- ऐसी महती कृपा है,
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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