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________________ धन्य-चरित्र/326 जीर्ण-शीर्ण वस्त्र की तरह पाँव पोंछकर फेंक दी हैं। अब वे उसके लिए अस्पृश्य हो गयी है और मैं उस एक रत्न-कम्बल के लिए मरा जा रहा हूँ। श्री जिनेश्वर ने शुभ, शुभतर व शुभतम अध्यवसायों के उदय में जो विचित्रता बतायी है, वह सत्य ही है। पर एक बात से तो मैं भी धन्यतम हूँ कि मेरे राज्य में इस प्रकार के भोग-पुरन्दर सुखपूर्वक विलास करते हैं। इस कारण मेरा जीवन जीना सफलतम है। इस प्रकार की भोगैश्वर्यता पूर्वजन्म-कृत श्री जिनमार्ग के अनुकूल शुद्ध-तपस्या व दानादि का ही फल है, अतः मुझे ऐसे आराधक के दर्शन करने चाहिए। देखना चाहिए कि वह कैसा है? अति पुण्यवानों के दर्शन से वह दिन कृतार्थ हो जाता है।'' इस प्रकार विचार करके अभय से कहा-"तुम उसके घर जाकर, कोमल वचनों से उसे प्रमुदित करके सम्मानपूर्वक, अनेक प्रयत्नों के द्वारा, यथेच्छापूर्वक, सुखासन द्वारा रथ आदि पर आरूढ़ करके, दिव्य वाद्ययंत्रों के निर्घोष से आडम्बरपूर्वक यहाँ लेकर आओ, जिससे उस कृतधर्मा, कृतपुण्या आत्मा के मैं दर्शन कर पाऊँ। इस प्रकार के राज्यादेश को प्राप्त करके अभयकुमार शुभ-परिकर से युक्त होकर हर्षित होता हुआ शालिभद्र के घर गया। सेवकों ने पहले ही भद्रा को अभय के आगमन के बारे में बता दिया था। जब घर की वीथिका के अन्दर अभयकुमार आया, तो भद्रा स्वयं अनेक सखियों व दासियों से घिरी हुई अपने घर-आँगन से सौ कदम आगे आकर सम्मुख आयी। अत्यन्त आदरपूर्वक न्यौछावर करके उसे घर के अन्दर ले गयी। भव्य-आसन पर बिठलाकर, अत्यन्त अद्भुत, नये-नये देशों में उत्पन्न वस्तुओं का उपहार देकर पुण्य-ताम्बुल–अत्तर (इत्र) आदि के द्वारा शिष्टाचार करके सामने खड़ी होकर दोनों हाथों को जोड़कर भद्रा ने कहा-"आज हमारा महान पुण्योदय है, आज का दिवस सुप्रभात को लेकर आया है, आज हमारे मनोरथ पूर्ण हुए, क्योंकि हमारे स्वामी महामंत्री ने अपने चारु चरणों द्वारा हमारे घर को पावन किया है। आपने इतना श्रम किया। राज भवन से ही आज्ञा प्रेषित क्यों नहीं की? स्वामी का आदेश सुनते ही मैं स्वयं सिर के बल आपश्री के निर्दिष्ट कार्य को पूर्ण करती, क्योंकि सेवकों को आज्ञा मात्र देने से भी स्वामी के द्वारा निर्दिष्ट कार्य में विलम्ब हो जाता है।" भद्रा के इस प्रकार के वचनों को सुनकर अभय ने कहा-"आपने जो कहा, वह सत्य है। मैं जानता हूँ कि आप जैसी कुलीन नारियों की यही स्थिति है, परन्तु मुझे भी स्वामी के आदेश की पालना तो करनी ही चाहिए, क्योंकि आज अत्यधिक प्रसन्नचित्त होकर महाराज ने मुझसे कहा-'तुम परिकर-युक्त होकर शालिभद्र के घर जाओ। जाकर कुशल-क्षेम पूछकर आदर से यत्नपूर्वक उसे यहाँ लेकर आओ, जिससे मैं पुण्यशाली शालिभद्र का मुख देख सकूँ।' इस प्रकार राजा के आदेश को पाकर मैं शालिभद्र को आमंत्रण देने आया हूँ | अतः आप शालिभद्र को मेरे साथ भेजने की कृपा करें, जिससे अति-उत्सुक महाराज के मनोरथ फलीभूत होवें। प्रसन्न होकर
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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