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________________ धन्य - चरित्र / 302 धनसुन्दरी पति के पाप गर्त में गिर जाने से अत्यधिक तीव्र स्वर में रूदन करने लगी। साधु भगवान ने पुनः उपदेश के द्वारा शिक्षा दी - " हे महानुभावे ! क्यों आत्मा को दुःखी करती हो? संसार का स्वभाव ही ऐसा है । भवान्तर में गयी हुई वस्तु को अपना विचारने से भी वह कुछ भी काम नहीं आती है। अनेक हजारों देवताओं के द्वारा सेवित चक्रवर्ती के भवान्तर में चले जाने पर कोई भी उसे मन में भी स्मरण नहीं करता। यह जीव कभी मन रूपी करण से कार्य को साधता है, बहुत से देवों पर शासन करता है, पुनः वही जीव जड़-स्वरूप एकेन्द्रियों अथवा तिर्यंच योनि में अश्व, गर्दभ आदि योनि में उत्पन्न होता हुआ महादुःख को प्राप्त करता है। वहाँ कोई भी देव सहायता के लिए नहीं आता है। इस प्रकार तिर्यंचयोनिक जीव भी देवत्व को प्राप्त करता है। चारों ही गति के जीव परस्पर भव - संतति के द्वारा अनेक सम्बन्धों के साथ उत्पन्न होते हैं, इसमें विस्मय नहीं करना चाहिए। सभी जीव सभी भवों के सम्बन्ध से आत्मीय ही होते हैं। हम भी उन सम्बन्धों से उनके अपने हो जाते हैं पर ऐसे सांसारिक सम्बन्धों को जानकर संसार से तारने में समर्थ धर्म में मति करनी चाहिए। भवान्तर में जाते हुए जीव के साथ सिर्फ पुण्य और पाप ही जाता है, दूसरा कुछ नहीं । अतः चतुराई के साथ पुण्य - कार्य में प्रयत्न करना चाहिए । जो धन हमने अपने हाथ से धर्म व दान के लिए व्यय किया, वही भवान्तर में सहायक होता है । जघन्यतः दसगुणा फल देता है। अतिशुद्धतर व अति- शुद्धतम भाव से व्यय किया हुआ वही धन शतगुणा, सहस्रगुणा, लक्षगुणा, कोटिगुणा व उससे भी अधिक फल देता है । पाप - मति भी इसी रूप में फल देती है । अतः जैसे दही-घी आदि का कारण दूध ही है, वैसे ही सभी सुखों का अवन्ध्य कारण धर्म ही है, अतः उसी का आश्रय लेना चाहिए ।" इस प्रकार धर्मोपदेश रूप शिक्षा देकर साधु भगवन अन्यत्र विहार कर गये। तब धनसुन्दरी ने नागिल दरिद्री को बुलाकर कहा - " हे नागिल ! मेरे घर में रोज जो भी घर सम्बन्धी कार्य है, वह तुम करना। बदले में मैं तुम्हे आजीविका दूँगी। पर तुम्हारे पुत्र इस बालक को यहाँ मत लाना। जब वय को प्राप्त होगा, तब मेरे घर का कार्य तुम्हारा यही पुत्र करेगा । तब तक हमारे घर में तुम ही कार्य करोगे और आजीविका ग्रहण करोगे ।" उसने भी उत्साहपूर्वक स्वीकार कर लिया । इस प्रकार कितना ही काल बीत जाने के बाद एक बार रात्रि में सुखपूर्वक सोये हुए भोगदेव ने दो महिलाओं का परस्पर आलाप सुना । एक ने कहा - "तुम कौन हो?"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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