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________________ धन्य - चरित्र / 301 जानकर कहा - "हे कुमार! एकान्त के द्वारा हर्ष व उत्सुकता नहीं करनी चाहिए । कहा भी है विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः । यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ।। विपत्ति में धैर्य, उन्नति में क्षमा, सभा में वाक्पटुता, युद्ध में विक्रम, यश में अभिरुचि तथा धर्म-श्रवण में व्यसन- ये गुण महात्माओं को स्वभातः सिद्ध होते हैं । इन्द्र भी अपने पुण्य का वर्णन करते हुए लघुता को ही प्राप्त करता है। कहा है आप बड़ाई जे करे, ते नर लघुआ हुंत । फीकां लागे चटकमें, ज्युं स्त्री कुच आप ग्रहंत । । शास्त्र में भी स्वगुण तथा परदोष का वर्णन सर्वथा त्याज्य कहा गया है। तुम्हारे पिता संचयशील ने बिना दान दिये और बिना भोगे पापस्थानों का आचरण करके अपार धन का संचय किया। उसके बाद धन-संरक्षण से बंधे हुए एकमात्र आर्त्तध्यान की अनुमोदना द्वारा आयु को घटाकर मरकर इसी नगर में नागिल नामक आजन्म दरिद्री के यहाँ पुत्र रूप से उत्पन्न हुए हैं । अकृत पुण्यवाले उनको वहाँ भी माता-पिता का अनिष्ट होने से पेट भर अन्न को भी नहीं प्राप्त करते हुए अत्यन्त दुःखपूर्वक काल व्यतीत कर रहे हैं। नीति व धर्मशास्त्रों में भी कहा गया है सपुण्ण दिन्नु न धणिय धणु, गड्डहि गोचिय मुक्कं । न वि परलोओ न इह भवु दुहिं विप्पयारइ चक्खु ।। तथा कम्मयरो घरस्सामी, घरस्सामी तस्स चेव कम्मयरो | को सद्द खु एयं अच्चो ! विहिविलसियं विसमं ? !! स्वपुण्य के लिए धन का दान नहीं किया और उसे गर्त में छिपाकर रखा। वह धन न तो परलोक में काम आया, न इहलोक में, दोनों से ही ये नेत्र प्रतारित हुए । और कर्मकर घर का स्वामी बन गया और घर का स्वामी कर्मकर से बुरी दशा में पहुँच गया। अहो ! इस विधिसे विलसित आश्चर्य पर कौन श्रद्धा (विश्वास) करता है?" इस प्रकार साधु भगवान ने धनदत्त को हितशिक्षा दी । उसे सुनकर
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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