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________________ धन्य-चरित्र/290 उसने कहा-“तुम्हारे वाम पैर के द्वारा जिसे अशुचि कहकर घृणा करते हुए दूर उछाला गया था, मैं वही तुम्हारी गृहलक्ष्मी हूँ।" सुचिवोद ने कहा-“अब कहाँ रहती हो?" उसने कहा-"जिसके स्पर्श से मैं अशुचि मानकर तुम्हारे द्वारा दूर फेंकी गयी थी, उसी मातंग के घर पर रहती हूँ।" सुचिवोद ने पूछा-"कौन मातंग?" देवी ने कहा-“जिसकी सेवा करते हुए तुमने अत्यधिक दिन बिताये, जिसके पीछे-पीछे लगे हुए, उसके जूतों आदि का वहन करते हुए तुम्हारी आत्मा परिक्लेशित हुई, उसी के पास रहती हूँ।" उसने पूछा-"यहाँ क्यों आयी हो?" देवी ने कहा-"मैं तुम्हारे उसी शौचधर्म को देखने आयी हूँ, कि किस प्रकार तुम शौचधर्म की रक्षा करते हो?" यह कहकर लक्ष्मी अन्तर्ध्यान हो गयी। सुचिवोद तो लज्जा से झुके हुए कन्धोंवाला अतिक्लेशपूर्वक प्राणवृत्ति को करते हुए सकल लोगों की हँसी का पात्र बना। जहाँ-जहाँ भी वह जाता था, वहाँ-वहाँ लोग उसके मूर्खता और कामकुम्भ के टूटने की बात बताकर उसका परिहास करते थे। यह सुनकर वह मन ही मन जलता था, पर निर्धन होने से दुःखपूर्वक काल व्यतीत करता था। इसलिए हे केरल कुमार! यह अन्त को प्राप्त होनेवाली लक्ष्मी अति शौच करने पर भी स्थिर नहीं रहती। सेवा और पूजा के द्वारा भी लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती। उसे भी सुनो। जो दूसरा सुचिवोद का मित्र श्रीदेव था, उसने भी अनेक प्रकार से अन्य देवी-देवताओं की पूजा छोड़कर एक-मात्र लक्ष्मी देवता की प्रतिमा करवाकर घर के मध्य पवित्र स्थान पर देवी-गृह करवाकर मंत्र-आह्वान, पूजन, संस्कार आदि विधि के द्वारा प्रतिष्ठापित की। नित्य त्रिकाल धूप-दीप-पुष्प आदि के द्वारा पूजन करता था। प्रतिक्षण लक्ष्मी-मन्त्र व ध्यान आदि का स्मरण करते हुए काल को व्यतीत करता था। एकबार लक्ष्मी की प्रतिमा के मुख को हास्य की मुद्रा में देखकर श्रीदेव ने पूछा-"भगवती के हँसने का क्या प्रयोजन है?" __लक्ष्मी ने कहा-"तुम्हारा चरित्र।" श्रीदेव ने कहा-"मेरा अनुचित चरित्र क्या है, जो कि तुम्हारे परिहास का कारण बना?" लक्ष्मी ने कहा-"सुनो। जो तुम परम पद के साधक, परम करुणामृत रूपी रस से भरे हुए कुम्भ के समान, सकल चराचर जीवों के हित-वत्सल,
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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