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________________ धन्य-चरित्र/289 सुचिवोद! इस अभूतपूर्व अभुक्तपूर्व दिव्य रसोई कहाँ से खिला रहे हो? ऐसी रसोई तो किसी ने भी पूर्व में नहीं खायी, न ही कभी खाने को मिलेगी। मनुष्यलोक में भी देवलोक के तुल्य भोजन का आस्वादन तुमने करवाया है। तुम धन्य हो और सर्व जनों में अग्रणी हो। तुम्हारे जैसा अन्य कोई नहीं देखा। पर यह तो बताओ कि तुम्हारे में ऐसी शक्ति कहाँ से आयी? यह किसकी महिमा है?" तब सुचिवोद ने उनके वचनों से गर्वित होते हुए, मान के आवेश से मदमस्त होकर घर के अन्दर जाकर उस घट को कन्धे पर चढ़ाकर स्वजनों के मध्य रहते हुए हर्ष से विकल चैतन्यवाला होकर नृत्य करते हुए मुख से कहने लगा-"अहो। इस घट के प्रभाव से मेरा दारिद्र्य प्रनष्ट हो गया। भोजन तो क्या चीज है? इस प्रकार का भोजन तो इस घट के प्रभाव से मैं हर महीने ही आप लोगों को खिलाऊँगा। अब कौन मेरी तुलना करेगा? अगर कोई है, तो मेरे सामने आओ। उसका सामर्थ्य भी देख लूँ।" इस प्रकार गर्वपूरित हृदय की उत्सुकता से व्याकुल चित्त के द्वारा हर्ष से नाचते हुए उसके सिर पर से घट गिरकर टूट गया। उसके सैकड़ों टुकड़े हो गये। अब वह निराश होकर दुःख करने लगा। उसके मुख को देखकर हर घर में और हर मनुष्य उसकी हँसी उड़ाने लगे। मूर्खता में किसी के प्रवृत्त होने पर उसी का उदाहरण दिया जाता। वह देखकर हृदय में जलते हुए पुनः ग्राम से निकल गया। मातंग को खोजने लगा। अनेक दिनों के बाद वह मिला। उससे सारी घटना कही। मातंग भी वह सब सुनकर कुछ हँसते हुए सिर पर हाथ देकर बोला-"धिक्कार है तुम्हारी मूर्खता को! सर्व-इच्छित देनेवाली वस्तु को तुम्हारे जैसे मूर्ख के बिना लोगों के मध्य में कोई भी प्रकट नहीं करता। हे जड़धी! तीन बार तुम्हारे मनोरथ को सिद्ध करनेवाली स्वभाव सिद्ध विद्या दी, फिर भी तुझ मूढ़ की दरिद्रता नहीं गयी। तुम वापस मेरे पास आ गये। अब मेरे पास कोई अन्य मंत्रादि नहीं है। मेरे पास इतनी ही विद्याएँ थी। वह सभी मैंने तुमको दे दी। अब मेरे पास मत आना। तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, वहाँ जाओ।" इस प्रकार कहकर उसके द्वारा भेजा हुआ सुचिवोद उदास मुखवाला होकर घर आ गया। दिन को आर्त्तध्यान से बीताकर रात्रि में सोया। जैसे ही निद्रा के अभिमुख हुआ, वैसे ही एक मध्य वयवाली श्वेत वस्त्रों को धारण किये हुए श्रेष्ठ तरुणी घर के मध्य में सामने से आती हुई दिखायी दी। तब संभ्रम सहित उठकर उसे प्रणाम करते हुए पूछा-"भगवती! आप कौन हैं? किसलिए आयी हैं?"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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