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धन्य-चरित्र/283 करते। धूम के समूह से चित्रवल्ली की तरह हृदय को मलिन करते हैं। कहा भी गया है
__ भक्तद्वेषो जड़े प्रीतिररुचिर्गुरुलङ्घने।
मुखे च कटुता नित्यं धनिनां ज्वरिणामिव ।। जिस प्रकार रोगी भोजन से द्वेष करता है, वैसे ही धनी व्यक्ति सेवकों से द्वेष करता है। जिस प्रकार रोगी को जल में रुचि होती है, उसी प्रकार धनी को मूों में प्रीति होती है। जिस प्रकार रोगी को उपवास में अरुचि होती है, उसी प्रकार धनी को अपने पिता आदि गुरुजनों के वचन में अरुचि रहती है। रोगी का मुख जैसे कड़वा होता है, वैसे ही धनी के मुख पर सदैव कटु वचन ही होते हैं। इस प्रकार राज्यगुरु को गर्व के विष से गलित विवेकवाले नमन नहीं करते हैं, देव की पूजा नहीं करते, मुनियों की सेवा नहीं करते, शास्त्र का श्रवण नहीं करते, माता, पिता, सज्जन व कुल-वृद्ध आदि की लज्जा को भी नहीं धारण करते। अपने द्वारा कहे हुए असुन्दर वचनों को भी अतीव सुन्दर रूप से स्थापित करते हैं। दूसरों के द्वारा कहे हुए सुन्दर वचनों को भी असुन्दर रूप से स्थापित करते हैं। उसी पुरुष को अपने पास बैठाते है, उसी का कहा हुआ सुनते हैं, वही पास बैठकर बोलने में समर्थ होता है, अभिनव वस्तु, खान-पान, द्रव्य, वस्त्रादि भी उसी को देते है, उसी को आत्मीय मित्र, सज्जन तथा शुभचिंतक के रूप में जानते हैं, उसी का बहुमान करते हैं, उसी के साथ बात-चीत करते हैं, हृदय में रहा हुआ सभी कुछ उसी को ही कहते हैं, जो राजा के द्वारा कहा हुआ "तहत्ति” कहकर स्वीकार करता है। जो राजा की स्तुति देवता की तरह करता है। जो राजा के भुजबल-पराक्रम, दानादि में उदारता को अतिशयपूर्वक वर्णन करता है। इन आचारों के द्वारा ही राजा का वल्लभ हुआ जा सकता है, सत्यवादिता के द्वारा नहीं, प्रतिवचन में शिक्षा के द्वारा नहीं और न ही भविष्य में हित को करने के द्वारा। इसलिए हे कुमार! इस प्रकार की राजलक्ष्मी के द्वारा अनेक प्रकार के विकार पैदा होते हैं, अज्ञानीजनों को कर्मों का बंध होता है, पर बुधजनों तथा तत्त्वज्ञों के लिए पूर्वापर आय-व्यय की दर्शिनी नहीं होती। इस विषय में एक कथानक सावधान मनवाले होकर सुनो। जैसे-सुचिवोद व श्रीदेव नामक दो साहूकार मित्रों ने लक्ष्मी की विशालता करके उच्च पद को प्राप्त किया, पुनः लक्ष्मी के स्थिरीकरण के लिए शुचित्व, पूजा आदि अत्यधिक बहुमान करते हुए लक्ष्मी ने उन्हें तृणवत् अकिंचित्कर बना दिया। वह इस प्रकार है
सुचिवोद-श्रीदेव का कथानक भोगपुर नगर में सुचिवोद तथा श्रीदेव नामक दो वणिक-पुत्र अलग-अलग