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________________ धन्य - चरित्र / 282 विभूति के द्वारा सुन्दर, सामने चलते हुए अनेक पैदल सेनाओं से संकुल, सभी लोगों के लिए दर्शनीय, चतुर सर्प के समान चलनेवाली, समस्त ऐहिक सुखों की निधि के सदृश इस प्रकार की लक्ष्मी कैसे त्याग करने के लिए शक्य है?" भगवान ने कहा- ' - "कुमार! अनादि वासना के सम्बन्ध के योग से इन्द्रियों के वशीभूत रहे हुए संसारी जीवों को इन्द्रिय सुख परम इष्ट है और वह लक्ष्मी के अधीन है। अतः संसारी जनों को लक्ष्मी अति प्रिय है। पर लक्ष्मी तो खल पुरुष की तरह जीवों को अति दुःखदायी होती है। जैसे- खल पहले मीठे वचनों के द्वारा दूसरे को मोहित करके सभी कुछ जानकर उसको कुबुद्धि देकर कुकार्य में प्रवृत्त करवाता है। उसके बाद राजा के सामने कुकार्य में प्रवर्तन रूप चुगली करके कारागार में पहुँचवा देता है । पुनः राजा आदि के सामने कुछ भी उच्च-नीच वचन रचना करके उसे कुछ दण्ड दिलवाकर उसके आगे तो अति भयभीत होते हुए उसके सर्वस्व को ग्रहण कर लेता है । रंक की तरह अपने आधीन करके उसे रखता है । वह मनुष्य तो यही जानता है कि यह मेरा हितकारक है, अन्य कोई नहीं। बाद में खल पुरुष उसको मोहित करके और दरिद्र बनाकर घर से निकाल देता है। उसके सामने भी नहीं देखता है । वहाँ से स्थान - भ्रष्ट वह मनुष्य अनेक दुःखों का सामना करता है । इस प्रकार लक्ष्मी भी दुःखदायी है। उसका भी चरित्र सुनो - यह लक्ष्मी मरण का दान देने में दक्ष है, पर संवर आदि धर्म से विमुख है। यह पहले तो महा-क्लेश से प्राप्त होती है, फिर प्राप्त होकर भी महा - दुःख से पाली जाती है। धन-संरक्षण का अनुबंध करनेवाले रौद्र ध्यान का मूल है। लक्ष्मी से दुलार को पाये हुए नर एक लक्ष्मी को उपार्जित करने के लिए प्रवर्तमान होते हुए कुल की मर्यादा तक का खयाल नहीं करते। न शील का ध्यान रखते हैं, शीलवानों का भी मान नहीं रखते। न वृद्धत्व का मान रखते हैं, न शास्त्र को मानते हैं, न धर्म की समीहा करते हैं, न आचरण की चिंता करते हैं, न जाति, कुल, धर्म व देश के विरुद्ध आचरण की उन्हें लाज ही आती है, लक्षण - अपलक्षण की गवेषण भी नहीं करते, न पवित्र कर्म को आदरते हैं। पुष्पमाला आदि अनेक प्रकार की वस्तुओं के द्वारा यत्नपूर्वक और मानपूर्वक पूजित होने पर भी क्षण-भर में ही बदल जाते हैं। चाण्डाल की तरह विनय आदि गुणों से युक्त पुरुष का स्पर्श भी नहीं करते। मदिरा पीये हुए के समान प्रकृति किसी भी प्रकार से विकृति को प्राप्त हो जाती है। लक्ष्मीवान पुरुष ज्वर से गृहित पुरुष की तरह अनाप-शनाप बकते रहते हैं। अत्यधिक आकुल चित्तवाले होते हैं। धनवान व्यक्ति पानी से कीचड़ की तरह दाक्षिण्य को धो डालते है। किसी के भी मुख की रक्षा नहीं
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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