SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/270 एक ही राज्य की तरह-स्नेह-सम्बन्ध स्थापित हो गया। इस तरह बहुत दिन बीत जाने के बाद राजा प्रद्योत को अपने घर जाने की इच्छा हुई। "गुप्त रूप से मैं यहाँ लाया गया हूँ, अतः अब अपने घर जाना ही श्रेष्ठ होगा।" इस प्रकार विचार करके उन्होंने राजा श्रेणिक से कहा-“राजन! सज्जनों की संगति से काल कैसे व्यतीत हो जाता है, पता ही नहीं चलता। आपके, अभय के व धन्य के वियोग को कौन चाहता है? पर क्या किया जाये? राज्य शून्य है, किसी का भी सत्यापन करके नहीं आया हूँ। फिर मैं तो यहाँ छल से लाया गया हूँ, अतः लोग बातें बनायेंगे। अतः आप मुझे आज्ञा प्रदान कीजिए, जिससे मैं अपने देश चला जाऊँ।" पर श्रेणिक व अभय ने आग्रह करके उन्हें कुछ दिन के लिए और रोक लिया। पुनः जाने के लिए आज्ञा माँगी। तब श्रेणिक ने उनके जाने की सम्पूर्ण तैयारी करके अनेक हाथी, घोड़े, रथ, आभूषण, वस्त्रादि देकर अलग-अलग देशों में उत्पन्न अनेक प्रकार के नये-नये पदार्थ देकर, महान विभूति के साथ उन्हें विदा किया। धन्य ने भी अदृष्टपूर्व वस्त्र-आभरण आदि उपहार प्रदान किये। इस तरह प्रद्योत राजा अभय व धन्य के गुणों की प्रशंसा करते हुए वहाँ से रवाना हुआ। श्रेणिक, धन्य, अभय आदि प्रमुख पुरुष उसे रवाना करने के लिए कुछ दूर तक आये। फिर अभय ने अपने द्वारा की गयी दम्भ-रचना के लिए अत्यन्त विनयपूर्वक क्षमा याचना की। प्रद्योत अश्रुपूर्ण नेत्रों के साथ कहने लगा-"तुम्हारी-रचना तो हमारे सुख के लिए ही साबित हुई, पर तुम्हारा वियोग तो हमें अत्यधिक दुःख की अनुभूति करा रहा है।" अभय ने कहा-“स्वामी! मैं पुनः चरण-कमलों के दर्शनों के लिए आऊँगा। मेरे लिए भी पूज्य-चरणों का विरह असह्य है, पर क्या किया जा सकता है? राज्य-भार को वहन करने के कारण निकलना शक्य नहीं होता। अतः मुझ पर आपकी विशेष कृपा बनी रहे।'' इस प्रकार परस्पर स्नेह-प्रणतिपूर्वक अनेक सैन्यों के साथ प्रद्योत उज्जयिनी के लिए रवाना हुआ। कुछ दिनों में ही कुशलतापूर्वक उज्जयिनी पहुँचे। भव्य-दिवस पर महोत्सपूर्वक नगर-प्रवेश किया। उस दिन से श्रेणिक व प्रद्योत का परस्पर पत्र-व्यवहार तथा यथावसर उपहार आदि के आदान-प्रदानपूर्वक स्वजनसम्बन्ध स्थापित हो गया। अपने-अपने स्थान पर दोनों ही सुन्दर न्यायपूर्वक राज्य करने लगे। || इस प्रकार प्रद्योत-आनयन का अधिकार पूर्ण हुआ।।
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy