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________________ धन्य-चरित्र/269 द्वारा शिक्षा देनी चाहिए कि फिर से ऐसा न करें।" । प्रद्योत ने कहा-“हे मगधाधिप! अब ऐसा नहीं करेगा। कैसे? जगत को अपने वश में करने में कुशल आपके अभय के साथ संगति के पाश में आबद्ध होकर अब कहीं नहीं जायेगा, इस प्रकार मुझे मन-वचन-काया से विश्वास है।" इस प्रकार सभा के मध्य राजा श्रेणिक व चण्ड प्रद्योत ने धन्य की अत्यधिक प्रशंसा की। फिर समय हो जाने पर सभाजनों को विसर्जित करके दोनों ही राजा धन्य को साथ लेकर राजमहल में गये। राजसेवकों ने विविध प्रकार की तथा अद्भुत स्नान-मज्जन-भोजन आदि की सामग्री तैयार करके निवेदन किया। उन दोनों राजाओं ने धन्य व अभय के साथ राज-स्नान, मज्जन आदि विधि के द्वारा सहस्रपाक, लक्षपाक आदि तेलों के द्वारा मालिश करवाकर पुष्प आदि से सुवासित जल के द्वारा तथा बाद में शुद्ध पानी के द्वारा स्नान करके अत्यधिक अद्भुत विदेशी भव्य वस्त्र पट्टांशुक आदि धारण करके, सर्व अलंकारों से आभूषित करके भोजन-मण्डप में अनेक राजवर्गीय सामन्त आदि के साथ यथायोग्य भव्य आसन को अलंकृत किया। फिर अठारह प्रकार के व्यंजन से युक्त तथा सुखपूर्वक खाये जानेवाले मिष्टान्न आदि से युक्त रसोई का भोजन करके तथा कुल्ले के द्वारा परम पवित्र होकर घर के भीतरी स्थान पर आकर बैठे। फिर पाँच प्रकार की सुगंध से वासित तथा लौंग-इलायची आदि से युक्त पान आदि के द्वारा मुख-शुद्धि करके सुख-शय्या पर सो गये। समय-समय पर आस्थान आदि को अलंकृत करके गीत गाने में कुशल अनेक लोगों के द्वारा गाये जाते हुए गान को सुनते हुए रहते, तो कभी राजसवारी के द्वारा दोनों राजा महा-विभूति से युक्त होकर निकलते। उद्यानों में विविध प्रकार की पुष्प शोभा को देखते हुए, घुड़सवारी के द्वारा विविध क्रीड़ाओं को करते हुए, पुनः उसी महा-विभूति के साथ घर आ जाते थे। संध्या-समय में यथारुचि खान-पान आदि करके, रात्रि में गायकों के द्वारा की जानेवाली अनेक प्रकार की राग-रचनाओं को सुनकर के सुख-निद्रा में लीन हो जाते थे। प्रभात में प्राभातिक-राग से युक्त आतोद्य के शब्दों के साथ निद्रा का त्याग करते थे। इस प्रकार प्रतिदिन राजा श्रेणिक नये-नये वस्त्र, अलंकार, वाहन, गीत, वादिंत्र, अद्भुत भोज्य-सामग्री का निर्माण आदि की प्रमुखता से अत्यधिक विशिष्ट आचारों का सेवन करवाते हुए प्रद्योत के मन में प्रीतिलता का वर्द्धन करते थे। हमेशा बिना किसी शल्य के हृदय-गत-वार्ता करके प्रीति को बद्धमूल की तरह दृढ़ करते थे। कुछ भी भेदभाव नहीं रखते थे। इस प्रकार उत्कृष्ट सेवाओं के द्वारा प्रद्योत को प्रसन्नता का पात्र बना दिया। दोनों के बीच
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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