SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/146 गुण-वर्णन कराये जाते हुए, हाथ में सुवर्ण दण्ड धारण किये हुए लोगों द्वारा मोर की पीछी से आतप का निवारण कराये जाते हुए, उत्तम स्वर्ण के समान गौरवर्णवाले, विचित्र रत्नालंकार से भासित, चमकती हुई दिव्य औषधियों के ज्योति-समूह से मानो स्वर्णाचल ही हो, इस प्रकार “चिरकाल तक जिओ, चिरकाल तक जय पाओ, चिरकाल तक सुखी होओ' इत्यादि बोलते हुए बन्दी जनों के समूहों को जीवन भर उपभोग के लिए समर्थ धन-संचय का दान करते हुए सरोवर के कार्य को देखने के लिए फैले हुए नेत्रों से कौतुक को देखते हुए-इस प्रकार धन्य श्रेष्ठी को वहाँ आया हुआ देखकर सभी कर्मकर हर्ष से उसे नमने लगे। तब सभी का प्रणाम ग्रहण करके एकान्त में अशोक वृक्ष की छाया में सेवकों द्वारा किये हुए राजा के योग्य आसन पर बैठा। वहाँ कुछ समय आराम करने के बाद सभी कर्मकरों की खनन-प्रवृत्ति देखने लगा। तभी एक जगह चाकर की वृत्ति से क्लेश पाते हुए अपने कुटुम्ब को देखकर चकित होता हुआ विचार करने लगा-"अहो! देवताओं द्वारा भी कर्म-रेखा अनुल्लंघ्य देखी जाती है। क्योंकि उदयति यदि भानुः पश्चिमायाँ दिशायाँ, प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वह्निः । विकसति यदि पद्मं पर्वताग्रे शिलायाँ, तदपि न चलतीयं भाविनी कर्मरेखा।। अर्थात् यदि सूर्य पश्चिम दिशा में उगता है, मेरु अपने स्थान से चलित होता है, अग्नि शीतल हो जाती है, पर्वत पर रहनेवाली शिला पर कमल उग जाता है, तो भी होनहार की रेखा कभी भी चलित नहीं होती। ये मेरे माता-पिता! ये मेरे भाई-भाभी! यह मेरी पत्नी! यह मेरा समस्त कुटुम्ब! अहो! धिक्कार है! कैसी असम्भावित दुर्दशा दैव के द्वारा प्राप्त करायी गयी है। यह शालिभद्र की बहन होकर भी कैसे मिट्टी को ढो रही है। कर्मो की गति विचित्र है-यह सर्वज्ञ वचन मिथ्या नहीं है, क्योंकि अनेक राजाओं की मण्डलियों से जिनके चरण-कमल उपास्यमान थे, उन हरिश्चन्द्र राजा को भी चाण्डाल के घर में पानी भरना पड़ा। सतियों में अग्रणी दमयन्ती को भी यौवन वय में भी अत्यन्त दु:खी होकर घोर वन में एकाकी समय बिताना पड़ा। तीनों ही जगत में ऐसा कोई नहीं है, जिसने बिना भोगे कर्म का क्षय किया हो। जो कोई तीर्थकर आदि अतुल बल-वीर्य-उत्साह से सम्पन्न पुरुष हुए, उन्होंने भी नये कर्म नहीं बाँधे, पूर्वबद्ध कर्मों का तो भोगकर ही क्षय किया। विधि के वक्र होने पर कैसे सुखी हुआ जा सकता है? राजा के मुकुट से भ्रष्ट, धूल से आच्छादित, अलक्ष्य चैतन्य और देवाधिष्ठित भी रत्न लोगों के पाँवों के घट्टन आदि से अनेक विपदाओं को सहन करता है, तो राग-द्वेष की प्रबल उदयतावाले मनुष्यों को तो सहन करना ही पड़ता है। उस समय आर्त ध्यान नहीं करना चाहिए, क्योंकि आर्त्तध्यानपूर्वक सहन करने से
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy