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राजा का होता हैं। मैंने राजा को कुछ कहा नहीं है। कहीं कोई चुगली खोर राजा से कुछ कह दे, तो अनर्थ हो जाय। इससे अच्छा है, मैं ही राजा से सब कुछ कह दूँ।" इस प्रकार विचारकर सेठ ने राजा से सारी बातें बतायीं । राजा भी उसकी बातें सुनकर, उसे न्यायप्रिय और अदत्त परिहार व्रतयुक्त जानकर बोला "श्रेष्ठी! तेरे पुत्र के पुण्यप्रभाव से यह लक्ष्मी तुझे मिली है। अतः तु ही लक्ष्मी का स्वामी है। फिर भी तूने मुझे सारी बातें बतायीं हैं, यह तेरा विनय-विवेक है। अब मैं तुझे आज्ञा देता हूँ कि तुम इस लक्ष्मी का उपभोग करो ।" सेठ अपने घर आया।। शुभदिन पर स्वजन संबंधियों को एकत्रितकर भोजनादि करवाकर कहा कि "मेरे घर में इस बालक के जन्म के प्रभाव से लक्ष्मी अपार है। अतः इसका नाम लक्ष्मीपुंज हो। सबने स्वीकार किया । क्रमशः लक्ष्मीपुंजकुमार बड़ा हुआ। पढ़ने योग्य उम्र में पढ़ने भेजा । अल्पावधि में ७२ कलाओं में (पंडितों को साक्षी मात्र करके) प्रवीण हुआ । एकबार उद्यान में मुनि भगवंत के दर्शन वंदनकर उनसे विधिपूर्वक सम्यक्त्व ग्रहण किया । दृढ़ श्रावक हुआ। यौवनावस्था में लक्ष्मीपुंजकुमार के आने पर धनेश्वर आदि आठ श्रेष्ठियों ने रूपश्री आदि आठ कन्याओं का संबंध तय किया । शुभमुहूर्त में आठ कन्याओं से उसका पाणिग्रहण करवाया । पूर्व पुन्य के अनुभाव से चिन्तामुक्त होकर सेठ यथेष्ठ भोग सुख भोगने लगा। भोग भोगते हुए भी धर्माराधना में दत्त चित्त था ही। उसकी धर्मप्रियता के कारण उसका दास-दासी वर्ग भी धर्म प्रिय बन गया था। पूर्व पुन्यानुभाव से विपत्ति तो उसके घर से कोशों दूर थी। और संपत्ति स्वयं आकर विलास करती थी। दानादि में विपुल मात्रा में धनादि का व्यय करने पर भी, दिनोदिन लक्ष्मी वृद्धि को प्राप्त होती थी। उसकी पुन्यानुबंधी पुन्यवाली लक्ष्मी से अनेक वणिक् पुत्र सुखपूर्वक निर्वाह करनेवाले धनाढ्य बन गये थे । सुधर्मा श्रेष्ठि ने पुत्र के पुन्य को देखकर उसे गृह चिन्ता, व्यापार चिन्ता से दूर रखा । सुधर्मा व्यवसाय करते हुए भी धर्माराधना करता ही था । वह