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एकबार राजा ने अल्प अपराधवाले चोर को मरवाया । वह अकामनिर्जरा से व्यंतरनिकाय में देव बना । वहाँ उसने विभंगज्ञान से पूर्वभव जानकर, राजा पर कुपित होकर राजा का अनिष्ट न कर सकने से हाथियों पर व्याधि का उपक्रम किया । राज वैद्यों ने अनेक औषधियों का प्रयोग किया, पर व्याधि - शांत न हुई । राजा ने मंत्री को आदेश दिया । मंत्री ने भी अनेक उपाय किये, पर कोई फल न मिला । एक बार मंत्री इसी चिन्ता से व्यथित जहाँ राजर्षि अतिबल ठहरे थे, वहाँ गया । वहाँ उसको दैवी वाद्यों की ध्वनि सुनायी दी । वहाँ जाकर देखा तो मुनि भगवंत के सामने देवियाँ नृत्य कर रही थी । मुनि को महाप्रभावशाली मानकर नमस्कारकर, अवसर मिलने पर उनके पैरों की धूल लेकर गजशाला में जाकर हाथियों के मस्तक पर तिलक किये । उस धूल के तिलक से सभी गजराज निरोगी हो गये । व्यंतर की शक्ति तप के प्रभाव के आगे टीक न सकी । व्यंतर भाग गया । मंत्री ने राजा को समाचार दिये । राजा ने मुनि भगवंत की मन ही मन स्तवना की, और अपने नगर में उत्सव मनाने का आदेश देकर, राजा, मंत्री, परिवार सहित मुनि भगवंत | को वंदन करने के लिए गये । मुनि ने भी ध्यान पूर्णकर धर्मलाभ की पवित्र आशीष दी । सभी यथास्थान बैठे । उनके आग्रह से मुनि भगवंत ने साधु एवं श्रावक धर्म को समझाया । मुनि के पुनीत दर्शन से मुनि भगवंत पर अतीव श्रद्धा उत्पन्न होने से प्रतिबोध पाकर राजा व मंत्री ने श्रावक धर्म स्वीकार किया । अन्योंने भी अपनी-अपनी शक्ति भावनानुसार श्रावक धर्म स्वीकार किया । इस प्रकार गजपुर में धर्म प्रभावना की वर्षाकर अप्रतिबद्ध विहार करते हुए मुनि हीरपुर में आये ।
हीरपुर का राजा बलसार नगर में मरकी के रोग से चिन्ताग्रस्त था । अनेक उपाय किये पर सभी विफल रहे । मुनि