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सर्वज्ञदर्शित धर्मतत्त्व को सम्यक् प्रकार से स्वीकार करो तो आपका कार्य करूँ।' "उन्होंने कहा "यदि हमारा कार्य आप करोगे तो देव के वचन से तुम ही तत्त्वज्ञ और हमारे गुरु हो ।' तब कुमार ने कहा “ऐसा है तो शीघ्र अग्नि फल आदि सामग्री ले आओ। उन्होंने भी उसके कथनानुसार सारी सामग्री एकत्रित की। कुण्डादि बना दिये । कुमार ने सोचा 'ये आडंबर से ही प्रतिबोधित होगे।' ऐसा विचारकर जयानंद स्नानकर, मुद्रा ध्यान आसन आदि किये । और फिर निम्न मंत्र पढ़ा' ॐ नमोऽर्हद्भ्यः ही सर्व सम्पद्वशीकरेभ्यः, हीँ नमः सर्वसिद्धेभ्यः । सिद्धान्त चतुष्टेभ्यः, श्री नमः आचार्येभ्यः । पञ्चाचारधरेभ्यः । ॐ नमः उपाध्यायेभ्यः सर्वविघ्नभयापहारिभ्यः ॐ नमः सर्वसाधुभ्यः सर्वदुष्टगणोच्चाटनेभ्यः सर्वाभिष्टार्थान् साधय साधय, सर्वविघ्नान् स्फोटय स्फोटय, सर्वदुष्टान् उच्चाटय उच्चाटय, एनं स्वं रूपमानय, हूँ फुट-फुट् स्वाहा । इत्यादि मंत्रों को बोलकर पुष्प फलादि का होमकर आगे बिठाये हुए व्याघ्र का एकबार हाथ से स्पर्श किया । रेल्लणी देवी प्रदत्त यथेच्छ रूपविधायिनी औषधि निपुणता से उसके मस्तक पर रखी और वह व्याघ्र पुरुष रूप में हो गया, कुलपति को पूर्व के रूप में देखकर सब तापस प्रसन्न हुए। कुमार को प्रणामकर उसकी स्तुति की । कुलपति भी आदरपूर्वक कुमार को आलिंगनकर बोला “हारित मानवभव को पुनः नरावतार देनेवाले महाभाग्यवंत तुमको मेरा प्रणाम ।" तब कुमार और तापसों ने पूछा' 'आपका यह व्याघ्ररूप कैसे हुआ । कुलपति ने कहा
"कन्या के लिए कुमार की गवेषणा करने पर्यंक पर जा रहा था । अचानक गगन से पर्वत पर पर्यंक सहित गिरा और अपने आपको व्याघ्र बना देखा। और वहाँ एक जैनमुनि को ध्यानस्थ देखा। मुनि के आगे एक देव चार देवीयों के साथ मनोहर नृत्य कर रहा था । तब मैंने सोचा 'इस मुनि ने किसी कारण से मुझे ऐसा किया है । फिर मैंने