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| कन्या देना चाहता हूँ । किसीकी विवाह योग्य कन्या हो तो कहो" तब सुरदत्त नामक सेनापति बोला "मेरी एक कन्या है ?'' शुभ मुहूर्त में उसका विवाह हरिवीर से कर दिया । राजा ने भी कन्यादान में बहुत धन दिया । यथेष्ट समय ससुराल में रहकर महापुर जाने की बात कही। तब सुरदत्त ने अनुमति दी । परंतु 'सुभगा' पत्नि का मधुकंठ नामक एक नौकर से संबंध होने से वह जाना नहीं चाहती थी। उसने शादी भी अपने पिता की आबरू को सुरक्षित रखने हेतु ही की थी । उसने पेट दर्द का बहाना कर दिया। स्त्रियों को कपट शिक्षा लेनी नहीं पड़ती। वह कला तो उनमें होती ही है।
वह क्रंदन करती हुई मंच पर लोटने लगी। अनेक उपचार किये । पर वह अधिकाधिक क्रंदन करने लगी । दंभ से पति पर प्रेमवर्षा करती हुई बोली-"मेरे प्रबल भाग्य से सर्वोत्तम पति मिले । परंतु किसी पापोदय से मैं आपके साथ नहीं आ सकती । आप भी यहाँ कितने दिन रहोगे? हरिवीर कुछ दिन रुका तो उसने भोजन लेना बंदकर अपने शरीर को अधिक कृश बनाया । तब सुरदत्त ने कहा “आप इस अवस्था में इसे ले जाकर उपाधि में पड़ोगे । अतः हम इसके ठीक हो जाने पर आपको समाचार भेजेंगे । फिर आकर ले जाना ।' हरिवीर सुभगा के कृत्रिम प्रेम को स्वाभाविक समझ कर उसकी यादें लेकर गया ।
इधर थोडे दिनों में उसने अपना नाटक समेट लिया । पूर्ववत् मधुकंठ नामक नौकर के साथ स्त्री चरित्र में प्रवीण होने के कारण किसीको ध्यान में न आये वैसे क्रीड़ा करती रहती थी । अपनी पुत्री को स्वस्थ व आनंदित देखकर पिता ने हरिवीर को समाचार भेजे । वह उसके प्रेम से आकर्षित होकर लेने आया । सुरदत्त ने उचित आदर सत्कार किया । परंतु सुभगा अंतर में म्लान हो गयी । परंतु बाहर से स्नेह प्रदर्शित करने लगी । कहा है ‘ऐसी स्त्रियाँ एकपुरुष को हृदय