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चंद्रमाला हुई है। पूर्वाभ्यास से परस्पर अधिक स्नेह है। इधर सागर, राजा के द्वारा देश से निकाला हुआ, देशल पर द्वेष रखता हुआ, प्रथम नरक में गया । वहाँ से दरिद्र विप्र हुआ । वह विप्र परिव्राट हुआ । तपकर वहाँ से वैताढ्यपर्वत में देवों को क्रीड़ा का स्थान वज्रकूट है, वहाँ एक कोस की लंबाई चौड़ाईवाले भवन में मंत्री का जीव वज्रमुख नाम से देव हुआ। वह देव तेरी प्रिया को देखकर पूर्वराग के कारण उसका अपहरणकर ले गया है। उसने उससे प्रार्थना की, तब उसने कहा एक महिने का ब्रह्मचर्यव्रत है। अगर इस बीच में तूने बलात्कार की चेष्टा की तो मैं जीह्वा छेदकर आयुष्य पूर्ण कर लूंगी । इसलिए वह महिना पूर्ण होने की राह देख रहा है। मणिशेखर विद्याधर ने धर्मरूचि सद्गुरू से (प्रतिबुद्ध होकर) चारित्र लिया । क्रमशः चार ज्ञान का धनी होकर पूर्वभव के स्नेह से तुझे मैं प्रतिबोधित करने यहाँ आया हूँ। बोध पाकर चारित्र ग्रहण करना चाहिए । देवभोग को भोगे। अब इन अशुचिमयभोगों में क्यों आनंद मान रहा है? ऐसा सुनकर मैंने उनसे कहा "हे मुनिभगवंत! आपने मुझे कल्पवृक्ष के समान दर्शन देकर उपकृत किया है। मैं प्रतिबोधित हुआ हूँ। पर दूसरे के द्वारा हरण की हुई प्रिया का प्रेम मैं शीघ्र छोड़ने में असमर्थ हूँ। उसको प्राप्त करवाने में कौन समर्थ है, मेरी कन्या के योग्य वर कौन है? फिर मैं अल्पावधि में ही व्रत ग्रहण करूँगा।" मुनि भगवंत ने कहा "जिसने पवनवेग के पुत्र को छुड़वाया है, वही तेरे दोनों कार्य करेगा । मुझे ज्ञात है कि तेरे अभी तक भोगावली कर्मशेष हैं। उनको भोगने के बाद तेरी दीक्षा होगी । हम दोनों साथ में मोक्ष में जायेंगे।'' इस प्रकार मुनि की वाणी सुनकर जाति स्मरणवाला, अनासक्त हुआ मैं, प्रिया का स्मरण करता हुआ घर गया । मुनि विहार कर गये । पवनवेग के पुत्र को छुड़वाने वाले की खोज़ करता हुआ आज आपके पास आया हूँ ।" तब कुमार