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पर आया। राजा भी स्नान, भोजन और राज्यकार्य में प्रवृत हुआ । राजा की नजर सतत् गुर्वागमन की ओर रही ।
राजा ने सिंहसार को गर्दभ पर आरोहण करवाकर वध का आदेश दिया । कुमार ने करूणाकर सिंह को छुड़वाया । पिता को मिलने की उत्कंठा होते हुए भी राजा के आग्रह से रूका और सिहंसार को वहाँ भेजा । साथ में पत्र लिखा कि "यहाँ के राजा के अत्यनुरोध से मैं कुछ दिनों पश्चात् आ सकूँगा । उस समय तक राज्य योग्य सिंहसार को भेजा है। आप मेरा अपराध क्षमा करें । मेरा शत-शतवंदन स्वीकार करें ।" जय राजा ने सोचा मुझे तपश्चर्या करनी है, भाई राज्य लेता नहीं। योग्य कुमार आया नहीं । अब इसे ही राज्य देकर आत्महित कर लूं । वैसा ही किया । विजय पुत्र के मिलने की आशा से संसार में रहा । जय महाजट तापस के पास रत्नजट नाम से तापस हुआ ।
इधर श्रीपति राजा ने राज्य चिंता से मुक्त होकर काफी समय धर्मकार्य में व्यतीत किया । एक दिन उद्यान पालक ने आकर कहा कि आपके उद्यान में धर्मप्रभसूरीजी पधारें हैं। राजा गुर्वागमन से आनंदित होकर उसे पारितोषिक देकर विदा किया । स्वयं कुमार, मंत्रीगण, श्रेष्ठिगण और प्रजा सहित देशना सुनने गया । गुरु भगवंत ने भव भयवारक देशना दी। देशना श्रवणकर अनेक भव्यात्माओं ने प्रतिबोध पाकर जैनधर्म स्वीकार किया । किसीने, सम्यक्त्व किसीने देशविरति आदि व्रत यथा शक्ति ग्रहण किये । राजा ने सोचा मैं बाह्य शत्र और मित्र को पहचान न सका, तो अंतरंग को कैसे पहचानूं अब इनको जानने के लिए मुझे जैनी दीक्षा ही लेनी है, जिससे सभी शत्रुओं से मुक्त हो सकूँगा । ऐसा निर्णयकर गुरु भगवंत से कहा “मैं राज्य की व्यवस्थाकर के आपके पास दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ। आप यहाँ ठहरने की कृपा करावें ।