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को बांध लिया । तब कन्याओं का पिता भी वामन को पुत्री देना उचित न लगने से युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ । तब मंत्रीयों ने कहा "राजन् ! ऐसी कला, ऐसा दान, और ऐसा पराक्रमवाला जामाता आपको मिला है। आप हर्ष के स्थान पर खेद क्यों कर रहे हैं । यह वामन रूप स्वाभाविक नहीं हो सकता। किसी कारण से इसने वामन रूप किया है। आपकी कुलदेवी ने पुष्पवृष्टि तीनों बार की है। इससे भी आपको समझना चाहिए कि यह कोई महान् पुरुष है ।" इधर चारण लोगों ने विजयी होने पर पुनः उसके गुण गाये । तब उनको दान देता हुआ वह रथ से उतरा । श्वसुर के चरण स्पर्श किये। राजा ने उसे आशीर्वाद दिये । राजा उसे सिंहासन की ओर ले गया। उसे सिंहासन पर बिठाया। सभी अपने-अपने स्थान पर बैठे। राजा ने कहा आप कुशल हैं। तब उसने कहा “राजन् ! आपकी कृपा से कुशल हूँ। और यह कला और युद्ध की जीत मेरी नहीं है, परंतु मेरे हृदय में पंच परमेष्ठि मंत्र का सदा वास है । उसी से इनको मैंने जीता हैं ।" यह सुनकर जैन धर्म और परमेष्ठि मंत्र के प्रभाव से सभी प्रभावित हुए। फिर बंधियों को वहाँ लाया गया । उनको मुक्त कर दिया । अन्य सैनिक, पशु आदि घात से जर्जरों को, औषधिजल के सींचन से स्वस्थ कर दिये। उसके इस कार्य से अधिक हर्षित राजा ने कहा वत्स! तूने अपनी कला, दान, पराक्रम, कृपालुता आदि बतायी है। वैसे ही अब तेरा उत्तम रूप भी बताकर हमें आनंदरूपी सागर में स्नान कराओ। फिर उसने अपना अकृत्रिम रूप प्रकट किया । उसे देखकर दूर से आया एक चारण जोर से बोला " " हे क्षत्रवैश्रवण । स्वर्ण की वर्षा करनेवाले भूमि पर मेघवत् सदा जय पाओ ।" तब राजा ने पूछा यह क्षत्रवैश्रवण कौन है? तब पद्मरथराजा की पुत्री के पाणिग्रहण से क्षत्रवैश्रवण नाम तक का वृत्तांत उसने सुना दिया । सभा आश्चर्य चकित हो गयी ।
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