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रत्नद्वीप में रत्नपुर में ठहरा । स्त्रियाँ उतरकर घूमने चली । धनदेव भी उनके पीछे चला। उस नगर में श्रीज सेठ की (चार पुत्रों पर उत्पन्न) पुत्री का विवाह वसुदत्त सार्थवाह के पुत्र के साथ उस रात को था। वरराजा तोरण पर आया अचानक-एकतीर आया और उसका शिर कट गया । हर्ष के स्थान पर शोकमय वातावरण हो गया । श्रीपुंज शेठ ने सोचा "इसी मुहूर्त में इसकी शादी न की तो इससे कोई विवाह नहीं करेगा । इसलिए जिस किसी के भी साथ इसका विवाह कर देना है। अपने पुरुषों को किसी योग्य पुरुष को लाने भेजा । वे भी घूमते हुए धनदेव को ले आए। प्रार्थना पूर्वक सेठ ने उसे शादी के लिए तैयार कर दिया। उसने भी पूर्व पत्नियों को छोड़ने की इच्छा से शादी कर ली। शादी के समय वे दोनों वर-वधू को देखने आयी। तब एकने कहा "यह तो अपना पति है। दूसरीने कहा "वह यहाँ कैसे आ सकता है?" एक जैसे चेहरेवाले दो व्यक्ति हो सकते हैं। फिर वे घूमने गयी इधर शादी के बाद पत्नी के साथ धनदेव उसके आवास में गया । वहाँ उसने अपनी पत्नी के वस्त्र पर एक शोक लिखा ।"
कहाँ हसन्ती, कहाँ रत्नपुर कहाँ आकाश से आम्रवृक्ष का आना, धनपति का पुत्र धनदेव भाग्य से यहाँ लक्ष्मी को पाया।
इतना लिखकर बहाना बनाकर वृक्ष तक आया । वे भी आयी वह कोटर में रहा । वृक्ष उड़ा। उद्यान में आया । वह शीघ्र अपनी शय्या पर आकर सो गया। वे भी आकर अपने-अपने कमरे में सो गयी। प्रातः वे कार्य में लग गयी वह सोया हुआ था । उसका एक हाथ कंकणवाला वस्त्र से बाहर आ गया । उसे देखकर छोटी ने बड़ी से कहा । बड़ी ने कहा "तू भयभीत न हो।" उसने एक धागा मंत्रीतकर उसके पैर में बांध-दिया । वह उठा तो अपने आपको शुकरूप में देखा । उसने सोचा 'कंकण न खोलने की भूल