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कुवलयमाला - कथा है। इसलिए इन उपायों को जाने दीजिये। इसके बदले में आप भगवती राज्यलक्ष्मी नाम की देवी की उपासना कीजिये । उसने आपके वंश के पूर्वजों का बहुतेरा उपकार किया है । वह आपकी कुलदेवी है और पूज्य है । उसीसे पुत्र के वरदान की प्रार्थना कीजिये ।" मन्त्रियों की बात सुनकर राजा 'बहुत ठीक' कहकर आसन से उठे और मन्त्री भी उठ खड़े हुए।
दूसरे दिन पुष्य नक्षत्र और काली चतुर्दशी थी । राजा ने तमाम तिरस्तों और चौरस्तों में स्थापित किये हुए रुद्र आदि देवों की पूजा की, राक्षस आदि को बलिदान दिया और स्वयं स्नान करके धुले हुए दो सफेद वस्त्र पहने, समस्त शरीर में चन्दन का लेप किया, गले में मनोहर माला पहनी और नौकरों से पूजन की सामग्री की टोकरी उठवाकर राज्यलक्ष्मी देवी के मन्दिर में प्रवेश किया । वहाँ जाकर विधि के अनुसार देवी की पूजा की और दूब के आसन पर बैठ, दोनों हाथ जोड़ प्रार्थना करने लगा -
“पद्मनाभविभोर्वक्ष:पद्मभ्रमरवल्लभे ।
विधेहि पुत्रद्मं मे पद्मे पद्मासनस्थिते ।।
अर्थात् श्री पद्मप्रभ प्रभु के वक्षःस्थल के कमल में रहे हुए भ्रमर जिन्हें प्यारे लगते हैं ऐसी पद्मासन (कमल के आसन पर बैठी हुई हे पद्मावती देवी! मुझे पुत्र रूपी पद्म (कमल) दीजिये।" राजा का हृदय भक्ति से भर गया। वह इन्द्रियों को काबू में करके तीन रात और तीन दिन तक बराबर उसी कुशासन पर बैठा रहा। चौथा दिन हुआ । किन्तु देवी के दर्शन न होने से वह उत्तेजित हो उठा। चेहरा भयङ्कर हो गया । क्रोध में आकर उसने बाँये हाथ से अपने बाल पकड़े और दाहिने हाथ से पास पड़ी हुई तलवार उठा ली। वह अपनी गर्दन पर तलवार चलाना ही चाहता था कि तत्काल 'हा! हा' कहती हुई देवी ने उसका हाथ पकड़ लिया। राजा ने ऊपर देखा कि देवी सामने आ गई। देवी के मुख-चन्द्र के पास रहने पर भी उसका कर-कमल विशेष विकसित था और इसी कारण गन्ध के लोभी भौंरे जमा हो गये थे। भौरों की गुनगुनाहट से दिशायें गूँज रही थीं। देवी के दर्शन से राजा को शरीर में रोमाञ्च हो आया। वह ऐसा मालूम होता था कि कवच पहने हुए है । उसका मुँह खिल उठा। उसने नम्रता के साथ देवी को प्रणाम किया देवी कहने लगी- "राजन् ! जिस तलवार से
प्रथम प्रस्ताव