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कुवलयमाला-कथा बताया -"भद्र! यह स्वप्न शोभन है। प्रान्त में सम्यक्त्व, चारित्रकेवलज्ञान समृद्धि की और शाश्वत सुख संगम को सूचित करता है। शिलासार के समान कर्म होता है और जीव तो सुवर्ण के समान। तुमने ध्यान रूपी अग्नि से उसे जलाकर अपनी आत्मा को निर्मल कर लिया है। हे भद्र! तुम चरमदेह बन गये हो। राजगृह में कुवलयमाला जीव देव च्युत होकर स्वर्गत हो गया। उसको मायादित्यादि देव सारा ही कह दिया। वे सभी प्रव्रजित हो गये। इन सुकृतियों को तुम देखलो।" ____ तो यह सुनकर महारथ कुमार ने कहा -"भगवन्! यदि ऐसा है तो यह मनोरूपी अश्व विषम है, क्यों विलम्ब करते हो? मुझको दीक्षा दे दीजिये।" ऐसा कहने पर उस भगवान् श्री वर्धमान ने महारथकुमार को दीक्षित कर दिया। इस प्रकार वे पाँचों भी मिले हुए जन परस्पर जानते हैं यथा पूर्व में संकेत किए हुए सम्यक्त्वलाभ में हम हैं। इस प्रकार भगवान् श्री वर्धमान के साथ विचरण करते हुए उनके बहुत वर्ष व्यतीत हो गये। जिनेश्वर ने कहा मणिरथ कुमारादि साधुओं को कि 'आपकी आयु थोड़ी है" यह जानकर उन पाँचों ही यतियों ने अनशन कर राग द्वेष इन दो बन्धनों से रहित, तीन शल्य और तीन दण्डों से शून्य हुए क्षीण हुए चारों कषायों वाले, पञ्च इन्द्रियों के विजेता, छः जीवनिकायों के पालक बने हुए, सप्त भयस्थानों में रत हुए, आठ प्रकार मदस्थानों से विवर्जित, नवों ब्रह्मगुप्तियों में रत हुए, दश प्रकार के साधुधर्म के प्रतिपालन में उद्यत बने हुए एकादश अङ्गों के धारक, द्वादश प्रकार को तप को तपते हुए द्वादश प्रतिमाओं में रुचि बाँधे हुए, दुःसह परिग्रह को सहने वाले, स्वकीय देह में भी निरिच्छ बने हुए आमूल श्रामण्य धर्म को निष्कलङ्क पालते हुए अन्तिम समय में समाधि द्वारा आराधना की।
तथाहि कालविनयादि ज्ञानाचार अष्टप्रकार का है, निःशङ्कित आदि दर्शनाचार अष्टविध है, उसमें जो कोई भी अतिचार है, उसको सर्वथा ही त्याग देते हैं। एक इन्द्रिय वाले भूमि, तेज, वायु, वनस्पति आदि की, दो इन्द्रियों वाले कृमि, शङ्ख शक्ति, गण्डमूल जलौकादि की, तीन इन्द्रियों वाले यूका, मत्कुण, लिक्षा आदि की, चार इन्द्रियों वाले पतङ्ग मक्षिक, भृङ्ग, दंश आदि की, पाँच इन्द्रिय वाले जलचर, भूचर, खेचर, मानव आदि की हमारे द्वारा जो हिंसा की गयी
चतुर्थ प्रस्ताव