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कुवलयमाला-कथा "जो स्नेह त्याग कर और सौव एवम् इन्द्रिय समूह को नियन्त्रित करके यथाविधि देह त्यागता है वह प्राणी सुन्दर गति प्राप्त करता है।। ११० ।।
शुद्ध मन वाले पक्षी भी सम्यक्त्व को धारण करते हैं" यह कहकर उठकर भगवान् अन्यत्र विहार के लिए चले गये। मैं भी उस भगवान् के उपदेश को सुनकर उत्पन्न वैराग्य वाला बना हुआ और आहार न किया हुआ हे तात! आपके पास आया हूँ। अब कृपा करके मुझे भेज दो। मेरा सारा अपराध क्षमा कर दो जिससे स्वार्थपर हो जाऊँ।" तब वह पक्षी स्नेह की शृङ्खलाओं को छेद कर स्पर्शन आदि अश्वों के समूह को नियन्त्रित करके माता को, बड़े-छोटे भाई को और बड़ी छोटी बहन को, भार्या को, शिशुओं को और मित्रों को पूछ कर गगनतल में उड़ गया।
और इधर रात्रि व्यतीत होने पर सारा ही पक्षिवृन्द वटवृक्ष से प्रयाण कर गया। उस पक्षिवृन्द को उड़ा हुआ देखकर स्वयम्भुदेव भी विस्मितमना विचार करने लगा -"अरे, महान् आश्चर्य है कि इस वन में पक्षी भी मनुष्यों की भाषा बोलने वाले और सद्धर्म - परायण हैं। ये अवश्य देवपक्षी हैं। उस पक्षी ने कुटुम्ब को त्याग कर अपने हितकारी धर्म को स्वीकार किया है। यदि पक्षी भी धर्ममार्ग का अनुसरण करते हैं तो दूसरों के रत्न लेकर मैं कुटुम्ब का पोषण कैसे करूँ? तो इस समय मेरा यही कर्त्तव्य है जिसके पास उसने धर्मश्रवण किया था उसी से जाकर पूछू 'भगवन् ! पक्षी कौन है? उन्होंने क्या मन्त्रणा की, यह पूछ कर जो कृत्य होगा उसे पश्चात् करूँगा, जो उस पक्षी ने किया' यह निर्णय कर वटवृक्ष से उतरकर इस हस्तिनापुर में आ गया, हे गौतम! मेरे समवसरण में वह यह प्रविष्ट हुआ है, इसने मुझे पूछा है, वह पक्षी वन में कौन था?, कहा मैंने कि यह दिव्य पक्षी है। यह सुन कर उत्पन्न वैराग्य वाला वह निकल गया। तब निवृत्त कामभोग वाला उत्पन्न वैराग्यवाला नष्ट चारित्र के आवरण कर्म वाला उन दोनों को रत्न सौंप कर मेरे ही पास अभी आ रहा है।" महावीर भगवान् यह बता ही रहे थे कि गौतमादि के सम्मुख स्वयम्भुदेव आ पहुंचा और भगवान् को प्रणाम करके बोला -“देव! वन में पक्षिवचन सुनकर मैं प्रबुद्ध हो गया हूँ, मुझको दीक्षा दे दीजिये।" तब भगवान् ने यथाविधि स्वयम्भुदेव को दीक्षित कर दिया। चन्द्रसोमजीव स्वयम्भुदेव
चतुर्थ प्रस्ताव